१०० रसिकप्रिया शब्दार्थ-गुन लाल = लात डोरा । सारस = कमल । दुरे = छिपे हुए। दरसी = दिखाई पड़ी। परसी = स्पर्श की। पैनी तीखी। भावार्थ-( सखी की उक्ति सखी से ) हे सखी, उस (नायिका) ने अपने मस्तक पर की उन लटों को लाल डोरे से गुहा जिनमें मोतियों की सुखदायिनी लड़ियाँ लिपटी हुई थीं। (गुहने के बाद ) वह कमलनेत्रबाली हाथ में दर्पण लेकर उसे ( उसकी शोभा को) पालस्यपूर्वक (देर लगाकर) देखने लगी। ( उसकी इस क्रिया को ) श्रीकृष्ण छिपे हुए देख रहे थे। वह उस समय उन्हें ऐसी दिखाई पड़ी और उनकी मति को ऐसी अत्यंत तीखी ( उत्कृष्ट, अनोखी) उपमा ने स्पर्श किया, मानो सूर्य-मंडल ( लाल मरिण के दपंण ) में चंद्रमंडल ( मुख ) हो और त्रिवेणी धंसी हो (जा पहुँची हो ) ( केशकलाप श्यामवर्ण होने से यमुना, लाल डोरे सरस्वती और मोती उज्ज्वल वर्ण होने से गंगा की शोभा दे रहे थे ) । अलंकार-उक्तविषया वस्तूत्प्रेक्षा । श्रीकृष्णजू को प्रकाश साक्षात् दर्शन, यथा-( सवैया ) (१२७) इक तौ उर और उरोज अनूपम तैसे मनोहर हार महा रो। सखि चित्त चलै तरुनीनिहूँ को तरुनैन की केसव बात कहा री। हितु सौं हित की कहि श्रावति है पर कौ लगि होउँ री कौतुकहारी अब अंचल दैनँदलाल बिलोकत री दधि नोखी बिलोवनहारी।। शब्दार्थ-चित्त चलै तरुनीनिहूँ को = स्त्रियों का भी मन प्राकृष्ट हो जाता है । तरुनैन की = तरुण युवकों ( पुरुषों ) की । हितु = मित्र, संगिनी। अंचल दै= अंचल से ढक । नोखी = अनोखी, विचित्र । बिलोवनहारी= मथनेवाली। भावार्थ-( सखी की उक्ति नायिका से ) एक तो तेरे उर (वक्षःस्थल) और स्तन यों ही अनुपम हैं और इतने पर ( इन उरोजों पर) हार भी तद- नुरूप अत्यंत मनोहर पड़े हुए हैं । तेरी यह शोभा देखकर युवती स्त्रियों का मन भी चलायमान हो जाता है ( तेरी शोभा पर आकृष्ट हो जाता है), फिर तरुण पुरुषों की तो बात ही क्या ! अपनी संगिनी से भलाई की बात कहनी ही पड़ती है । ( आखिर ) मैं कब तक तमाशबीन ( तेरा यह तमाशा देखनेवाली) बनी रहूँ ? अब तो ( इन स्तनों को ) अंचल से ढक, नंदलाल (श्रीकृष्ण खड़े खड़े ) उसकी छटा देख रहे हैं (और तू दही मथने का बहाना करके उन्हें देखने का मौका दे रही है) तू तो अनोखी दही मथनेवाली निकलो! अलंकार--काव्यार्थापत्ति और अनुगुण । ७-उर-तरु । प्रावति०-है बनि आवति, है परि आवति, ही परि भावति । होउ०-होहु रो, होंव री।
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