पृष्ठ:रसिकप्रिया.djvu/९५

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रसिकप्रिया . -प्रकट। अथ ऊढ़ा-अनूढा-लक्षण--(दोहा) (११५) ऊढ़ा होइ बिबाहिता, अबिबाहिता अनूढ़ । तिनके कहौं बिलास अब, केसव गूढ़ अगूढ़ ।६६। शब्दार्थ--गूढ = गुप्त । अगूढ ऊढ़ा, यथा-( सवैया ) (११६) बैठौ सखीनि की सोभै सभा सब ही के सु नैननि माँझ बसे । बूमे तें बात बरयाइ कहै मन ही मन केसवराइ हँसे । खेलति है इत खेल उतै पिय चित्त खिलावति यौं बिलस । काउ जानै नहीं हग दौरि कबै कित ह हरि आनन छवै निकसै७. शब्दार्थ-सोभै = सुशोभित होती है। सु = सो, वह । सब ही० = सभी ध्यान से उसे देख रहे हैं । बूझे तें = पूछने पर ही। बरयाइ = बड़ी कठिनाई से । बिलसै = शोभा पाती है । कोउ...निकसै = न जाने कब उसके नेत्र दौड़- कर किधर से श्रीकृष्ण के मुख को छूते हुए निकल जाते हैं ( बीच बीच में वह नायक को बड़ी सफाई से देख लेती है )। अनूहा, यथा-( सवैया) (११७) बैठी हुती ब्रजनारिन में बनि श्रीवृषभानुकुमारि सभागी। खेलति ही सखी चौपर चारु भई तिहिं खेल खरी अनुरागी । पीछे तें केसव बोलि उठे सुनिकै चित चातुरी आतुरी जागी। जानी न काहू कबै हरि के सुर-मारगहीं सर सी हग लागी ७१। शब्दार्थ- हुती = थी। बनि = शृंगार करके । सभागी = भाग्यवती । ही = थी। खरी = अत्यंत । बोलि उठे = श्रीकृष्ण भाकर बोले । चित = चित्त में । चातुरी = चातुर्य । मातुरी = आतुरता । सुर-मारगहीं = स्वर के मार्ग से, जिधर से उनकी वाणी पा रही थी। भावार्थ-( सखी का बचन सखी से ) श्रीवृषभानु की पुत्री भाग्यवती राधिका ब्रजबालामों के बीच बैठी हुई थीं और हे सखी, सुन्दर चौपड़ खेल रही थीं। उस खेल में जब वे अत्यंत अनुरक्त (लीन ) हो गई ( तब ) इसी बीच में श्रीकृष्ण पाए और वे पीछे की ओर से कुछ ( बातें ) बोल उठे, जिन्हें सुनकर उन ( राधिका ) के मन में चतुरता और आतुरता दोनो जग गई। किसी को पता ही नहीं चला कि कब श्रीकृष्ण के स्वरमार्ग से (जिधर से उनकी वाणी की ध्वनि पा रही थी उधर ) उनके नेत्र श्रीकृष्ण के नेत्रों में बाण की भांति जा लगे। ६६-प्रबिवाहिता-अनब्याहिता। अब-सब । ७०-सु-जु । तें-हि। केसवराइ-केसवदास । ७१-चार-चारि । मारगहीं-भार गही।