१२ रसिकप्रिया यथा-( सवैया ) (१०४) आज बिराजत हैं कहि केसव श्रीबृषभानु-कुमारि कन्हाई । वानि विरंचि बहिक्रम काम रची जु बची सु बधूनि बनाई। अंग बिलोकि त्रिलोक में ऐसी को नारि नहीं जिन नारि नवाई । मृरतिवंत सिँगार-समीप सिँगार किये जनु सुंदरताई ॥५८) शब्दार्थ--बानि = (बाणी ) सरस्वती। बिरंचि = ब्रह्मा । बहिक्रम = वयःक्रम, वयःसंधि । काम = कामना । नारि = स्त्री। नारि - गर्दन । नवाई: झुकाई। भावार्थ-( सखी की उक्ति सखी से ) आज श्रीवृषभानु की पुत्री राधिका और श्रीकृष्ण अत्यंत सुशोभित हो रहे हैं। ब्रह्मा ने वयःसंधि की कामना से ( उसी वृषभानुकुमारी की सुंदरता से ही कुछ लेकर ) सरस्वती की रचना की, जो बचा उससे संसार की अन्य सुदर रमणियों का निर्माण किया। इसी से उसका अंग देखने पर त्रिलोक में ऐसी कोई स्त्री नहीं दिखाई देती जिसकी गर्दन न झुक जाए। ऐसा जान पड़ता है मानो साक्षात् शृंगार ( श्रीकृष्ण ) के समीप मूर्ति मयी सुदरता (राधिका) ही अपना रूप संवारे विराजमान हो। अलंकार-उत्प्रेक्षा। अथ प्रौटा-धीरा-लक्षणा—(दोहा ) (१०५) आदर मॉम अनादरै, प्रकट करै हित होइ प्राकृति आप दुरावई, प्रौढ़ा धीरा दोइ १५६) शब्दार्थ-हित होइ = हितुप्रा बनकर । प्रौढ़ा सादरा धीरा, यथा-( सवैया ) (१०६) आवत देखि लिये उठि आगें है आपुहि केसव आसनु दीनो । आपुहि पाइ पखारि भलें जल, पानी को भाजन लाइ नवीनो। बीरी बनाइकै आगे धरी जब बैहर कौं कर बीजना लीनो। बाँह गही हरि, ऐसे कह्यो हँप्ति मैं तो इतौ अपराध न कीनो ।६०। शब्दार्थ-बीरी = पान की गिलौरियाँ । बीजना = (व्यजन) पंखा । भावार्थ--(सखी की उक्ति सखी से) श्रीकृष्ण को (सपत्नी के यहाँ से) माते देखकर ( नायिका ने ) आगे बढ़कर उन्हें लिया और स्वयम् ही (बैठने को ) आसन दिया। पानी का नवीन बर्तन लाकर स्वच्छ जल से स्वयम् ही (परिचारिका द्वारा नहीं ) पैर भी धोए। स्वयम् पान के बीड़े भी बनाकर ५८-बहिक्रम-वही क्रम । बची-बरो। नहीं जिन-निहारि निनारि बनाई।
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