( ७) प्रबंध के लिए कथा का क्रमबद्ध रूप और अवसर के अनुकूल विस्तार-सकाच अपेक्षित होता है । रामचंद्रचंद्रिका में इसका ध्यान नहीं रखा गया है । केशव- दास वस्तुतः दरबारी जीव थे। इसी से जितनी बातें दरबार के अनुकूल थीं उन्हीं का वर्णन विस्तार से इन्होंने किया। पांडित्य का प्रदर्शन भी इनमें प्रधान था जो रामचंद्रचंद्रिका में स्थान स्थान पर लक्षित होता है। शास्त्र- स्थितिसंपादन की इच्छा इनमें प्रबल थी। महाकाव्य वर्णन-प्रधान भी होता है। किंतु इसका यह तात्पर्य नहीं कि वर्णनों पर ही दृष्टि रखकर कर्ता चले और वर्ण्य विषयों का ठीक ठीक निरूपण न करे या वर्णनों के लिए कथा की क्रमबद्धता का त्याग कर दे । संस्कृत में पिछले खेवे का प्रबंधकाव्य श्रीहर्ष का 'नैषधचरित' है । उसमें कथा- भाग बहुत कम है। इसी से वर्णन प्रधान दिखाई देता है। किंतु श्रीहर्ष ने वर्ण्य विषयों के साथ तादात्म्य की प्रतीति खोई नहीं। कवि का निरूपण इतना सूक्ष्म और व्यापक है कि उन वर्णनों का पढ़नेवाला उनसे ऊबता नहीं। किंतु केशव के वर्णन वैसे मार्मिक नहीं हुए हैं। सच बात तो यह है कि ये चमत्कारवादी कवि थे। स्थान स्थान पर चमत्कार दिखलाना ही इनका लक्ष्य था । चमक-दमक के चक्कर में अधिक रहने से ही प्रबंधकाव्य के अन्य आवश्यक गुणों का ध्यान इन्हें विशेष नहीं था। अतः यह कहने में कोई संकोच नहीं कि केशव में भाव-पक्ष प्रधान नहीं। रचना में कलापक्ष की प्रधानता इनकी व्यक्तिगत अभिरुचि मात्र नहीं थी। ये संस्कृत के पंडित थे । इन्होंने जिन जिन ग्रंथों को आदर्श बनाया वे चमत्कारपूर्ण उक्तियों से लदे हुए थे । उत्प्रेक्षा, श्लेष, विरोधाभास, परिसंख्या आदि अलंकारों की जैसी भरमार रामचंद्रचंद्रिका में दिखाई पड़ती है वैसी उसके आदर्श ग्रंथ वाण की 'कादंबरी' में भी। अंतर इतना ही है कि कादंबरीकार ने जिन जिन दृश्यों, स्थानों आदि का वर्णन किया है उनकी विशेषताओं का ध्यान भी बराबर रखा है, पर इन्होंने चमत्कार के फेर में उनका ध्यान बहुधा छोड़ दिया है । इसके अतिरिक्त प्रबंध के बीच अनावश्यक उपदेशात्मक प्रसंगों का जोड़ना ठीक नहीं जान पड़ता। पर ये इससे कहीं भी विरत नहीं हुए, यहाँ तक कि संस्कृत के 'प्रबोधचंद्रोदय' नाटक का आधार लेकर जो 'विज्ञानगीता' लिखी उसमें भी इस प्रकार के कई प्रसंग जोड़ दिए। ऐसा होते हुए भी रामचंद्रचंद्रिका में एक गुण विशेष ध्यान देने योग्य है। वह हैं संवादों का उपयुक्त विधान । इन्होंने संस्कृत के कई ऐसे नाटक देगे थे जो रामाख्यान पर थे। फल यह हुआ कि रामचंद्रचंद्रिका में संवादों की इन्होंने बहुत ही अच्छी योजना की। कई प्रसंग तो अनुवाद करके ही रखे हुए हैं ।
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