प्रथम प्रभाव (२०) अथ प्रच्छन्न-संयोग-शृगार, यथा-( सवैया ) बन में वृषभानुकुमारि मुरारि रमे मचि सों रसरूप पियें। कल कूजत पूजत कामकला बिपरीत रची रति केलि किये। मनि सोभित स्याम जराइ जरी अति चौकी चलै चल चारु हियें। मखतूल के मूल मुलावत केसव भानु मनो सनि अंक लियें ॥२०॥ शब्दार्थ-मुरारि = कृष्ण । रसरूप पियें = सौंदर्यरस का पान किए हुए । कल = सुदर । कूजत = बोलते हैं । पूजत = पूर्ण करते हैं । काम-कला- शृंगारिक चेष्टाएँ । विपरीत रति = नायक नायिका की उलटी काम-क्रीड़ा । केलि किये = काम क्रीड़ा करते हुए । मनि = माणिक, लाल रत्न । स्याम = नीलम । जराइ जरी= पच्चीकारी की हुई। चौकी = गले में पहनने का एक गहना, उरबसी, पदिक । चारु = सुदर । हिथे = वक्षःस्थल पर । मखतूल = काला रेशम । भानु = सूर्य । अंक = गोद । भावार्थ-( नायिका की अंतरंग सखी नायक की अंतरंग सखी से कहती है ) वन में श्रीराधिका और कृष्ण सौंदर्यरस का पान किए हुए रुचिपूर्वक रमण करने लगे, वे काम की कला को पूर्ण करनेवाले सुदर शब्दयुक्त कामक्रीड़ा करते हुए विपरीत रति में संलग्न हुए। ( उस समय राधिका जी के झूमने से उनके ) गले में पड़ी हुई माणिक में नीलम से जटित अत्यंत सुदर और चंचल चौकी का हिलना ऐसा प्रतीत होता हैं मानो सूर्य शनि को अपनी गोद में लिए हुए काले रेशम के झूले में झुला रहा है ( यहाँ पर माणिक की बनी चौकी भानु और नीलम शनैश्चर है । जिसमें चौकी पिरोई हुई है वह काले रेशम का धागा झूले की डोर है )। अलंकार-उक्तविषया वस्तूत्प्रेक्षा । सूचना-सूरति मिश्र और उनके अनुगमन पर सरदार कवि ने इस सवैये पर कई शंकाएँ उठाई हैं, यथा-'शृंगार में मुरारि नाम, विपरीत रति में सूर्य और शनि ( पिता-पुत्र ) की उत्प्रेक्षा आदि। उन्होंने इनका अपने ढंग से समाधान भी किया है। (२१) अथ प्रकाश-संयोग औ प्रकाश-वियोग-लक्षण--(दोहा) सो प्रकास संजोग अरु, कहैं प्रकास बियोग । अपने अपने चित्त में, जानें सिगरे लोग ।२१। भावार्थ-जिस संयोग और वियोग शृंगार को अंतरंग-बहिरंग सखी- सखा आदि सब जानें उसे प्रकाश संयोग और प्रकाश वियोग कहते हैं । २०-किये-हिए । सोहत-सोभित ।
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