पृष्ठ:रसिकप्रिया.djvu/५७

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प्रथम प्रभाव 5 अथ कविवर्णन-(दोहा) (३) नदी बेतवै-तीर जहँ, तीरथ तुगारन्य । नगर ओछड़ो बहु बसै, धरनीतल में धन्य । ३ । शब्दार्थ -तुंगारन्य = ( तंगारण्य ) अोछड़े के चारों ओर का जंगल । बहु बसे घना वसा हुआ। (४ आश्रम चारि बसे जहाँ, चारि बर्न सुभ कर्म । जप तप विद्या वेद-बिधि, सबै बढ़े धन धर्म । ४ । दिनप्रति जहँ दृनो लहै, जहाँ दया अरु दान । एक तहाँ केसव सुकबि, जानत सकल जहान । ५। अपने अपने धर्म तहँ, सबै सदा सुखकारि । जासों देस बिदेस के, रहे सबै नृप हारि । ६। (७) रच्यो बिरंचि बिचारि तहँ, नृपमान मधुकरसाहि । गहरवार कासीस-रबि, कुलमंडन जसु जाहि । ७। (८) ताको पुत्र प्रसिद्ध महिमंडन दूलहराम । इंद्रजीत ताको अनुज, सकल धर्म को धाम ! ८ | (६) दीन्ही ताहि नृसिंहजू , तन मन रन जयसिद्धि । हित करि लच्छन-राम ज्यों, भई राज की वृद्धि । ६ । (१०) तिन कबि केसवदास सों, कीन्हों धर्मसनेहु । सब सुख देकरि यों कह्यो, रसिकप्रिया करि देहु ।१०। शब्दार्थ-धर्मसनेहु कीन्हों = धर्म का स्नेह किया अर्थात् गुरु बनाकर दीक्षा ग्रहण की। (११) संबत सोरह सै बरष, बीते अठतालीस । कातिग सुदि तिथि सप्तमी, बार बरनि रजनीस ।११। शब्दार्थ-वरनि = बरनो, कहो । भावार्थ . संवत् १६४८ कार्तिक शुक्ला सप्तमी सोमवार के दिन केशव ने 'रगिकप्रिथा' का प्रारंभ किया। (१२) अति रति-गति मति एक करि, विविध विबेक-बिलाल । रसिकन कों रसिकप्रिया, कीनी केशवदास ।१२। शब्दार्थ-नि-गति ए :: करि = अपनी प्रीति को सब ओर से खींचकर । मति एक नारि - बुद्धि को एकाग्र करके। भावार्थ हान्य शास्त्रों से अपनी प्रीति को खींचकर और बुद्धि को ६-तह-तें। -राज की-राजसी। १०-कीन्हों-कियो धर्म सों मेह । १२-गति-मति गति ।