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केवल केशव ही प्रकृति से उदासीन नहीं, सारा मध्यकालीन काव्य उदासीन है। एक प्राध्यापक से, जो केशव की रामचंद्रचंद्रिका पढ़ाते थे, महामना मालवीयजी ने पूछा कि आज कल क्या पढ़ाते हो । उन्होंने तुरंत सोत्साह उत्तर दिया-केशवदास की रामचंद्रिका । फिर पृच्छा हुई–केशव की कोई रचना तो सुनायो । प्राध्यापक मौन । केशव की कविता भी स्मरण रखनी चाहिए इसका ध्यान प्राध्यापक को नहीं था । अर्थ लगाने में सहायक थी स्वर्गीय लाला भग- वानदीनजी की केशव-कौमुदी टीका । अत्र तत्र सर्वत्र । रामचंद्रचंद्रिका के छंद प्राचीनों ने तो कुछ कंठाग्र भी किए, रामलीला में संवादों के बीच अब भी वे सुनाई पड़ते हैं। नवीनों को, पढ़ने-पढ़ानेवाले शिक्षितों-सुशिक्षितों को इसकी आवश्यकता! बेचारे परीक्षार्थी अवश्य ही कुछ अंश, कभी पूरा पद्य और कभी पद-पदांश मात्र परीक्षा के पास से मुखाग्र-कंठाग्र कर लिया करते थे। प्राध्यापक इस बखेड़े से बरी । यह उन केशव की रचना की कथा है जिन्होंने कभी अकबर के यह पूछने पर कि युग का सबसे उत्तम कवि कौन है, उत्तर दिया था-मैं । सूरदास और तुलसीदास को भक्तों की मंडली में बिठलाया था। इस विस्मरण या अस्मरण का हेतु है केशव के काव्य का काठिन्य । केशव की कुत्सा काव्य-पांडित्य के स्खलन के कारण नहीं थी। मध्यकाल में किसी के पांडित्य या विदग्धता की जाँच की कसौटी थी केशव की कविता। उन्हें धीरे धीरे बहुत भुला दिया गया। ये केशव जिस प्रदेश में हुए थे वही ब्रजी का प्रदेश था। वह व्रजी के काव्य-वाङ्मय का केंद्र था। 'वे बुदेली के कवि थे' कहना उनका मान कम करना है। व्रजी के कवियों का भारी जमघट उसी अंचल में था। मुगल सम्राटों का निवास दिल्ली में नहीं आगरे के पास था। दिल्ली से रसखानि भी भागकर वृदावन मा बसे । घनानंद ने भी दिल्ली छोड़ी, वृदावन आए। जिस भू-भाग पर केशव ( उड़गन ही होकर सही ) चमक रहे थे वही व्रजी का प्रारंभिक भूभाग था । भापाकाव्य-निर्माण का स्रोत वहीं से फूटा है । उस अंचल में जैसे जैसे प्राचीन कवि हुए है और उन्होंने जैसी जैसी रचनाएँ की हैं उनमें से बहुतों का पता तक हिंदी के महंतों को नहीं है । नैषध का हिंदी में उल्था करनेवाले गुमान ने केशव की रामचंद्रचंद्रिका के जोड़-तोड़ में कृष्ण चंद्रिका लिखी। यह कृष्ण चंद्रिका यदि हिंदी के आलोचकों ने देख ली होती तो पता चलता कि हिंदी में ऐसे प्रबंध भी लिखे गए हैं । इनके भाई खुमान ने कृष्णायन लिखा है रामायण के जोड़तोड़ पर, जो अभी तक अप्रकाशित है। समझा यह जाता है कि श्रीद्वारकाप्रसाद मिश्र ने कदाचित् सबसे पहले इस नाम की कल्पना की और कृष्ण पर रामायण के ढंग का काव्य लिखा । उस कविंधरा भूमि में अनेक सरस कवि हुए। उन