पृष्ठ:रसिकप्रिया.djvu/३३

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( ३३ ) उज्ज्वलनीलमरिण में भी देशकालादि का उल्लेख है- देशकालबलेनैव मुरलीश्रवणेन विनाप्युपायं मानोऽसौ लीयते व्रजसुभ्रवाम् ॥ एकादश प्रभाव में करुणविरह का निरूपण केशव ने शृंगारतिलक से भिन्न किया है । शृंगारतिलक में वही लक्षण हैं जो शास्त्रीय ग्रंथों में अन्यत्र मिलता है। इसका प्रसिद्ध उदाहरण कादंबरी में महाश्वेता का विरह है । शृंगारतिलक में लक्षण यों हैं- यत्रकस्मिन्विपन्नेऽन्यो मृतकल्पोऽपि तद्गतम् । नायकः प्रलपेस्प्रेम्णा करुणोऽसौ स्मृतो यथा ॥२।६० पर केशव यों लिखते हैं- छूटि जात केसव जहाँ सुख के सबै उपाय । करुनारस उपजत तहाँ प्रापुन ते अकुलाय ॥११॥१ केशव इसके वर्णन के पक्ष में भी नहीं हैं। उनका कहना है- सुख में दुख क्यों बरनिये यह बरनत व्यवहार । तदपि प्रसंगहि पाइ कछु बरनत मति-अनुसार ॥१११२ इसका वर्णन रूप गोस्वामी ने इसलिए छोड़ दिया है कि वे इसे भी एक प्रकार का प्रवास विरह ही मानते हैं- विप्रलम्भपरं कैचित्करुणाभिधमचिरे । स प्रवासविशेषत्वान्नैवात्र पृथगोरितः।। कालियदह में प्रवेश करना आदि को वे करुणविप्रलंभ के अंतर्गत मानते हैं। केशव ने 'मति-अनुसार' कुछ नया विचार किया है । यह अवश्य विचारणीय है कि कालियदह-प्रवेश आदि में करुणरस माना जाए या करुणविप्रलंभ'। शास्त्रीय व्यवस्था इतनी ही है कि जब तक प्रियमिलन की आशा बनी है तब तक विप्रलंभ है, जहां नैराश्य आया वह करुण हो जाएगा । केशव ने संदिग्ध स्थिति का परित्याग कर करुणविरह का वर्णन इस आधार पर किया है कि यदि नायिका को विरहावस्था में कोई बाधक स्थिति क्लेशकारिणी उत्पन्न हो जाए तो करुणविप्रलंभ मानना चाहिए। यदि प्रिय के पास सखी जाए और उससे मिलकर वहीं रह जाए और विरहिणी को उसकी ऐसी करतूत का पता चल जाए तो वह करुणविरह है ( देखिए १११३ ) । प्रच्छन्न करुणविरह का उदाहरण तो ठीक बन गया है, पर प्रकाश करुणविरह में 'प्रवासविरह' ही है। जब विरह में कोई बाधक स्थिति भी प्रालंबन हो जाती है तब करुण- विरह होता है। कोई बाधक स्थिति उद्दीपन रहती है तो वहाँ 'विषाद' संचारी ही भर है। इसी से इनका 'प्रकाश करुणविरह' ठीक उदाहरण नहीं जान पड़ता ( देखिए ११।४) ।