( ३२ ) सुजान ॥८४८ भूलि जाइ सुधिबुधि जहाँ सुखदुख होइ समान । तासों जड़ता कहत हैंकेसवदास इसमें 'गता स्मृतिः' का 'भूलि जाइ सुधिबुधि' ठीक है। पर 'सुखदुख होइ समान' यह कदाचित् 'इष्टानिष्टापरिज्ञान' से संबद्ध है। क्योंकि सुख अनुकूल-वेदनीय होता हैं और दुःख प्रतिकूलवेदनीय । उज्ज्वलनीलमणि में 'जडिमा' का लक्षण यह है- इष्टानिष्टापरिज्ञानं यत्र प्रश्नेष्वनुचरम् । दर्शनधवरणामावो जडिमा सोऽभिधीयते । अत्राकाण्डेऽपि हुकारस्तम्भश्वासभ्रमादयः ॥ इस प्रभाव के अंत में केशव ने अनुभव की मार्मिक स्थिति का उल्लेख किया है। इनके अनुसार आदर, लोभ तथा अतिसंग से साधुओं के चित्त भी चंचल हो जाते हैं ( देखिए ८।५६ ) । नवम प्रभाव में केशव ने मान के प्रसग में नायक के मान का भी विवे- चन किया है । यह अंश शृंगारतिलक में नहीं है। साहित्यदर्पण में स्थिति स्पष्ट है- मानः कोपः स तु द्वेषा प्रणयेासमुद्भवः । द्वयोः प्रणयमानः स्यात्प्रमोदे सुमहत्यपि ॥३१।१६८ उज्ज्वलनीलमरिण में कहा गया है कि स्नेहं विना भयं न स्यान्नेा च प्रणयं विना। तस्मान्मानप्रकारोऽयं द्वयोः प्रेमप्रकाशकः ।। दशम प्रभाव में मानापनोदन के साधन ‘बताए गए हैं। इनमें एक दान भी है । केशव ने इसके प्रसंग में मार्मिक विच र की चर्चा की है । 'दान' तो वेश्या को भी दिया जाता है। फिर अन्यों से भेद किस प्रकार किया जायगा । उनका निर्णय है- जहाँ लोभ तें दान नै छाँडै मानिनि मान । बारबधू के लच्छनहिं पावै सहि प्रमान ॥ १०७ इसका अर्थ यह है कि जहां लोभ न हो वहीं दान-उपाय ठीक होगा। इसी प्रकार 'प्रणति' में अपराध या काम का हेतु होना आवश्यक है। बिना इसके प्रणति रस के लिए हानिकारक होती हैं ( देखिए १०।१८ )। मान छूटने की कुछ सहज या सरल स्थितियाँ भी होती हैं। इनका उल्लेख निम्नलिखित दोहे में है- देस काल बुधि बचन तें कल धुनि कोमल गान । सोमा सुम सौगंध तें सुख ही छूटत मान ॥१॥२६
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