पृष्ठ:रसिकप्रिया.djvu/३०

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( ३० ) नारीणां शृंगारचेष्टा हावः । स च स्वभावजो नारोसा । ननु बिब्बोक. विलासविच्छित्तिविभ्रमाः पुरषाणामपि संभवन्तीति चेत्सत्यम् । तेषां त्वौपा- धिका: स्वभावजाः स्त्रीरणामेव । नन्वेवं यदि तासां सदैव ते कथं न भवन्तीति चेत्सस्यम् । उद्दीपकान्वयव्यतिरेकाभ्यां नायिकानां हावाविर्भावतिरोमावाविति । रसतरंगिणी में लीला विलास बिच्छित्ति विभ्रम ललित को शारीरिक, मोट्टायित कुट्टमित बिब्बोक विहृत को आंतरिक और किलकिंचित को उभय- संकीर्ण कहा है साथ ही इन सबके विभाव और अनुभाव का भी उल्लेख विस्तार से किया है। जैसे लीला के संबंध में वे लिखते हैं- प्रियभूषणवचनानुकृतिौला । तत्र विमावः सखोकौतुककलापः । अनु- भाषः प्रियपरिहासः। भोजराज के शृंगारप्रकाश में इसका अत्यधिक विस्तार है। उन्होंने अनुभाव के अंतर्गत ही इन्हें रखा है। रूपगोस्वामी ने भी अनुभाव के भीतर ही इन्हें रखा है । भोजराज ने अनुभाव का लक्षण ही यों किया है- इदानीमनुमावं व्याख्यास्यामः । तत्र विमावैः प्रबुद्धसंस्कारस्य नायकादेः ये स्मृतीच्छाद्वेषप्रयत्नजन्मानः मनो वाग्बुद्धिशरीरारम्भाःतेऽनुभूयमानत्वाद्रत्यादी- नामनन्तरभवनाच्च अनुभावाः । इस प्रकार मन, वाणी, बुद्धि और शरीर के प्रारंभ अनुभाव हैं । 'मन प्रारंभ' में भाव, हाव, हेला, शोभा, क्रांति, उद्दीप्ति, माधुर्य, धैर्य, प्रागल्भ्य, औदार्य, स्थैर्य और गांभीर्य हैं । 'वागारंभ' में हैं आलाप, प्रलाप, विलाप, अनु- लाप, सल्लाप, अपलाप, संदेश, अतिदेश, निर्देश, उपदेश, अपदेश और व्यपदेश । * 'बुद्धयारंभ' भी बारह हैं-पांचाली, गौड़ी, वैदर्भी, लाटीया रीतियाँ, भारती, आरभटी, कैशिकी, सात्त्विकी वृत्तियाँ और पौरस्त्या, उड्र- मागधी, दाक्षिणात्या और आवंत्या। 'शरीरारंभ' में लीला, विलास, विच्छित्ति, विभ्रम, किलकिंचित, मोट्टायित, कुट्टमित, विब्बोक, ललित, विहृत, क्रीड़ित और केलि का ग्रहण है । उज्ज्वलनीलमरिण में 'विहृत' के स्थान पर 'विकृत' नाम है- ह्रोमानेादिभिर्यत्र नोच्यते स्वविवक्षितम् । व्यज्यते चेष्टयैवेदं विकृतं तद्विदुर्बुधा ।। भरत के नाटयशास्त्र में भी 'विकृत' नाम मिलता है। हिंदी के कुछ शृंगारयुगीन रीतिग्रंथों में भी यही नाम रखा गया है । नवीन कल्पना के लिए केशवदास ने क्षमार्थना भी की है-

  • मिलाइए नाट्यशास्त्र में अभिनयात्मक अलंकारों से । २४१५२-५.