पृष्ठ:रसिकप्रिया.djvu/२७२

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२७६ रसिकप्रिया यथा-( सवैया ) (५११) घेरि घने धन घोरत सज्जल उज्जल कज्जल को रुचि राचें। फूले फिर इभ से नभ पाइक सावन की पहली तिथि पाचैं। चौहूँ कुघा तड़िता तड़पै डरपै बनिता कहि केसव साचें। जानि मनो ब्रजराज बिना ब्रज ऊपर काल कुटुंबिनि नाचें। शब्दार्थ-घोरत =गरजते हैं । सज्जल =सजल । रुचि = शोभा । राचे- बनाते हैं । इभ%D = हाथी । पाइक =धावन । पाँचै = पंचमी। कुघा=ोर । तड़िता= बिजली। ब्रजराज= श्रीकृष्ण । काल-कुटुंबिनि = प्रेतिनी,पिशाचिनी। भावार्थ-( सखी की उक्ति सखी से ) घने और सजल वादल घिरकर गरज रहे हैं । उज्ज्वलता और श्यामता की शोभा फैला रहे हैं। आकाश में हाथी के ऐसे ये धावन फूले फिर रहे हैं। सावन की पहली पंचमी ( पहले पाख की तिथि है ) को चारों ओर बिजली कड़क रही है, सचमुच स्त्रियाँ डर जाती हैं मानो ब्रज को श्रीकृष्ण से रहित जानकर उसके ऊपर प्रतिनियों का नाच हो रहा है। सूचना-'तड़िता तड़प' से रौद्र, 'वनिता डरपै' से भयानक और 'काल- कुटुंबिनि नाचे' से बीभत्स रस व्यक्त हुप्रा है । अतः प्रारभटी वृत्ति है । अथ सात्वती-लक्षण-( दोहा ) (५१२) अद्भुत बीर सिँगाररस, समरस बरनि समान । सुनतहि समुझत भाव जिहिं सो सात्वती सुजान || शब्दार्थ-समरस = शांतरस । यथा-( कवित्त ) (५१३) केसौदाम लाख लाख भाँतिनि के 'अभिलाष, बारि दै री बावरी न बारि हिये होरी सी। राधा हरि केरा प्रीति सब तें अधिक जानि, रति रतिनाथहू में देखौं रति थोरी सी। तिन माह भेद न भवानिहूँ पै पारयो जाइ, भानत में भारती को भारतो है भोरो सी। एकै गति में मति एकै प्रान एकै मन, देखिन्ने को देह द्वे हैं नैननि की जोरी सी।। ७-उज्जल०--कज्जल को चरचा उर। चौहूं कुधा-चौहूँ दिसा, चहुँ कोदनि में, चौहूं कुदाँ । तड़पै-तलफै । कहि -लखि । ८.-बीर०-रुद्र रु बीर रस । जिहि-मनि । सात्वती--सात्वको । सुजान-प्रमान । ६-बारि-बारु । राधा-राधिका हरी की। में देखों-के जानौ । महि-हूँ में। मानत-भारत, भारती । भारती को-भारत की । भारती है--भारतीऊ, भारती है कहिबे को । .