पृष्ठ:रसिकप्रिया.djvu/२६९

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१८ चर्तुदश प्रभाव २७३ शब्दार्थ-दनुज = दानव । जननि-लोगों को, जीवों को। समरु = युद्ध । अजर = जिसे वृद्धावस्था न हो, जरारहित, सनकादि। अनंत=जिसका अंत न हो, विष्णु । अज=जिसका जन्म न हुआ हो, अजन्मा, ब्रह्मा। अमर = जो मरे न, देवता । बाजतं = बजता है। सुनि = सुनो। करि बेदनि = वेदों के वाद में लगो, ज्ञानचर्चा करो। भागनि = भाग्य से । भव = संसार, मर्त्य । भवन = लोक । भावार्थ-(किसी ज्ञानी की उक्ति संसारलिप्त व्यक्ति से ) दानव, मनुष्य, जल के जीवों तथा स्थल के जीवो को इस संसार में काल से युद्ध करना पड़ता है। अजर, अनंत, अज, देवता सभी इस संसार के चक्कर में पड़कर मरते हैं । इससे जो निकलना जान ले वही अमर है । अनाहत ( अनहद ) नाद हो रहा है, कानों से (ध्यान लगाकर) सुन, उस शब्द को समझ और वेदों की वार्ता ( ज्ञानचर्चा ) कर, नहीं तो शिव का डमरू बजने ही वाला है ( मृत्यु आने ही वाली है )। हे भाई, भागो, भाग्य से जिस प्रकार भागते बने ( इस संसार से बचते बने ) भागो। इस मर्त्यलोक के बीच भय का ही चारो ओर भंवर दिखाई देता है, सचेत रहो। सूचना-'केशव' ने अन्य रसों को शृंगार के भीतर ही दिखाया है। केवल शांत का ही यह शुद्ध उदाहरण दिया है । ( दोहा ) (५०४) इहिं बिधि बरन्यो बरन बहु, नवरस रसिक बिचारि । बाँधौं बृत्ति कबित्त को, कहि केसव बिधि चारि १४१। शब्दार्थ-बृत्ति = कैशिकी आदि चार वृत्तियों का वर्णन अगले प्रभाव में करेंगे। इति श्रीमन्महाराजकुमारइंद्रजीतविरचितायां रसिकप्रियायां नवरसवर्णनं नाम चतुर्दशः प्रभावः ॥१४॥ पंचदश प्रभाव अथ वृत्ति-वर्णन- ( दोहा ) (५०५) प्रथम कैसिको भारती, आरभटो भनि भाँति ! कहि केसव सुभ सात्वती, चतुर चतुर बिधि जाति ।१॥ शब्दार्थ -चार वृत्तयिां होती हैं-कैशिकी, भारती, आरभटी, सात्वती । ४१-बरन बहु०-नवरसन केसव । बांधों-बाँधहु । कहि केसव-कहियतु है। १-कैसिको-कौसिकी। प्रारभटी०-अनि अरभटी सुमांति । २-भाव- अर्थः।