कंद - जड़, मूल । । चतुर्दश प्रभाव २७१ घर जाउँ तु सोवत हैं फिरि जाउँ तो नंद पै खात बरा दधिवारे । सपनो यह सत्त किधौं सजनी हरि बाहिर होत खड़े घरबारे । पाठांतर-केसवराय-केसवदास । उघारे-उधारे । तब-तौ वै। बारे- धारे, पारे । यह-अनु । हरि-घर । घर । खड़े-बड़े। श्री राधिकाजू को समरस, यथा-( सवैया ) (५०१) देखै नहीं अरबिंदनि त्यों चित चंद की आनंदकंद निकाई । कामिनी कामकथा करै कान न ताकै विधाम की सुंदरताई । देखि गई जब तें तुमकों तब तें कछु वाहि न देख्यो सुहाई । छोड़ेगी देह जु देखें बिना अहो देहु न कान्ह कहूँछ दिखाई ॥३८॥ शब्दार्थ-त्यौं = ओर । चित्त = चित लगाकर । निकाई = सुंदरता । त्रिधाम तीनो लोक ( स्वर्ग, मर्त्य, पाताल भावार्थ-( सखी की उक्ति नायक से) हे कान्ह, जब से वह आपको देख गई है, तब से उसे कुछ देखना अच्छा ही नहीं लगता। न तो कमलों की योर देखती है और न चित्त लगाकर चंद्र की आनंददात्री सुदरता ही देखती हैं । कामिनी होकर भी कामकथा सुनने में कान नहीं लगाती और कहाँ तक कहें उसे तीनो लोक की सुंदरता भी नहीं भाती। यदि आप उसे दिखाई न पड़ें तो वह अपना शरीर त्याग देगी, किसी ओर ( घूमते फिरते ) आकर उसे दिखाई क्यों नहीं पड़ जाते ? अलंकार-पर्यायोक्ति। सूचना-यहाँ नायिका का मन केवल श्रीकृष्ण को देखना छोड़कर और सबसे उदास हो गया है। श्रीकृष्णजू को समरस, यथा-( सवैया ) (५०२) खारिक खात न दारयौंइ दाख न माखनहूँ सहुँ मेटी इठाई । केसव ऊख महूखहु दूखत आई हों तो पहँ छाँडि जिठाई तो रदनच्छद को रस रंचक चाखि गए करि केहूँ ढिठाई । ता दिन तें उन राखी उठाइ समेत सुधा बसुधा की मिठाई।३।। शब्दार्थ-खारिक = छुहारा । दारयौंइ= अनार ही। सहुँ से।'इटाई = इष्टता, स्नेह, चाह । महूख = ( मधुक ) शहद । दुखत =निंदा करते हैं । जिठाई = बड़प्पन । रदनच्छद = ( रदन = दाँत + छद = ढकनेवाला ) होंठ । रंचक = थोड़ा । केहूँ = किसी प्रकार । भावार्थ-( सखी की उक्ति नायिका से ) जब से वे तेरे होठों का किसी प्रकार धृष्टता करके थोड़ा सा रस ले गए हैं तब से छुहारा, अनार, अंगूर नहीं खाते । मक्खन की चाह भी छोड़ दी है। ऊख और शहद की भी ३८-कान-काम । देह-प्रान । ३६-महूखहु मयू वहि, पियूषहि ।
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