चर्तुदश प्रभाव २६६ प्राई = देख पाई । गुन = रस्सी ( प्रत्यंचा ) आनि = शपथ । आहि = (अस्ति ) है। ढीठ =( धृष्ट ) प्रौढ़, जानकार, कुशल । ईठ%3D ( इष्ट ) मित्र, स्वामी । अदीठ- अदृष्ट, जो दिखाई न पड़े। भावार्थ-(सखी की उक्ति सखी प्रति ) वे व्रज की हैं तो कुमारिकाएँ ही, पर शुक और सारिका को कोकशास्त्र की कारिकाएँ भली भाँति (अर्थ आदि समझाकर ) पढ़ाती हैं। वे गोरी गोरी भोली भाली हैं तो थोड़ी वय- वाली, पर दौड़ दौड़ चोरीचोरी देवियों की भांति श्रीकृष्ण को देख आती हैं ( उन्हें कोई देख नहीं पाता, जैसे देवी देवता अदृश्य रहते हुए सब कुछ देख लेते हैं ) । तेरी शपथ ( मेरा विश्वास कर ) वे बिना प्रत्यंचावाली भौंह का धनुष तानती हैं और उस पर कुटिल (टेढ़े, सीधे भी नहीं ) कटाक्ष रूपी बाण चलाती हैं । यही तो बड़े आश्चर्य की बात है। वे इतनी कुशल हैं कि तेरे स्वामी ( श्रीकृष्ण ) के अदृश्य (दिखाई पड़ता होता तो भी कोई बात थी ) मन को पीठ दे देकर ( बिना सामने हुए ही) मारती हैं और कोई भी लक्ष्य को चूकती नहीं हैं। अलंकार-विरोधाभास, विभावना । सूचना-१) एक तो कुमारी हैं, दूसरे सुग्गे को पढ़ा रही हैं ( अत्यंत अभ्यस्त हैं तभी तो) और तीसरी कभी भूल नहीं होती ( सबै निवाहि)। हैं तो भोली भाली और उस पर भी थोड़ी वय की, पर काम करती हैं देवियों के (बिना स्वयम् लक्षित हुए देख पाती हैं) । एक तो धनुष बिना प्रत्यंचा का है, दूसरे बाण भी टेढ़े मेढ़े हैं, तीसरे लक्ष्य अदृश्य है और चौथे पीछे की ओर प्राघात करना है, फिर भी लक्ष्य बिद्ध हो जाता है। (२) नारायण कवि ने दो शंकाएँ भी उठाई हैं और उनका समाधान भी किया है-(क) कुमारियों ने कोकशास्त्र किससे पढ़ा ? -सुनकर उन्होंने स्मरण कर रखा है। (ख) पीठ देकर डीठ कैसे मारती हैं ? -गर्दन मोड़कर देखती हैं। (३) यह छंद 'कविप्रिया' के नवें प्रभाव में विशेषालंकार के उदाहरण में दिया गया है। (४) ऐसा ही एक दोहा बिहारी का है- लिय कित कमनैती पढ़ी, बिन जिह भौंह कमान । चलचित बेझो चुकति नहि, बंक बिलोकनिम्बान ।।-बिहारीसतलैया (५) जिस 'माहि' को लोग पूर्वी का समझते हैं वह भी 'है' के अर्थ में केशव ने इसमें प्रयुक्त किया है। श्रीकृष्णजू को अद्भुतरस, यथा-( कबित्त) (४६) माखन के चोर मधु-चोर दधि-दूध-चोर, देखै नाहिं देखतही चित्त चोरि लेत हैं। .
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