पृष्ठ:रसिकप्रिया.djvu/२६०

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२६४ रसिकप्रिया से भिड़कर, प्रेम का कवच कसकर, साहस रूपी सहायक लेकर आज तूने मदनगोपाल रूपी प्रतिद्वंद्वी से रति रूपी युद्ध जीत लिया। अलंकार-सावयव रूपक । श्रीकृष्णजू को वीररस, यथा-( कबित्त ) (४८९) अघ ज्यों उदारिहौ कि बक व्यों बिदारिहौ कि, केस गहि केसौदास केसी ज्यों पछारिहौ । हरिहौ कि प्राननाथ पूतना के प्राननि ज्यों, बन तें कि मजदी काली ज्यों निकारिहौ। करिही बिमद धनबाहन ज्यों काहू सौ न हारे हरि याही सों क्यों हारिहौ। बेही काम काम बर ब्रज की कुमारिकानि, भारत हैं नंद के कुमार कब मारिहौ ।२६। शब्दार्थ-अघ = अघासुर । उदारिहौ = फाड़ डालोगे । बकः बकासुर । बिदारिही = नष्ट कर दोगे । केस बाल। केसी = केशी। पछारिही पराजित करोगे। वन तें: जल से । काली= कालिय नाग । निकारिहौ= निकालोगे। विमद गवरहित । धनबाहन = इंद्र । बेही काम = बिना किसी प्रयोजन के । काम = कामदेव । वचन --- गोपियों का दूत मथुरा में श्रीकृष्ण को पुरानी बातों का स्मरण दिलाकर काम विरह दूर करने की प्रार्थना कर रहा अलंकार-- उपमा । अथ भयानकर याना ( दोहा ) (४६०) होइ भयानक रस सदा, केसब स्याम सरीर । जाको देखत सुनतहीं, उपजि परति भयभीर २७ श्रीराधिकाज को भानयथा--( सवैया ) (४६१) मुजसंन्द मंडित के घनघोर उठे विडिल मंडि गटी। घराशि पला धन बात के संघट घोष घटै न घटीहूँ घटी। २६. दारिही-34 बिदारिही कि-विनारिहौ जू। केस गहि- कंस ज्यों कि, केस ज्यों कि । गोदास-के औरः। रिहो-हरिही। काम- काज । २७-होइ-होहि । होइ०-होइ भयंकर कृत सदा विग्रह काम सरीर । परति-परत. पैर: