पृष्ठ:रसिकप्रिया.djvu/२६

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( २६ ) भाव सु पंच प्रकार के सुनि बिभाव अनुमाव । थाई सात्विक कहत हैं व्यभिचारी कबिराव ॥६॥२ विभाव और अनुभाव को भी भाव कहना शास्त्रीय नहीं है। स्थायी भाव, व्यभिचारी और सात्त्विक भाव को तो रसतरंगिणीकार 'भाव' कहते है- रसानुकूलो विकारो भावो विकारोऽन्यथाभावः । विकारश्च द्विविध प्रान्तर श्शारीरश्चान्तरोऽपि द्विविधः स्थायी भावो व्यभिचारी भावश्च । शारीरास्तु सास्विकभावादयः । रस के अनुकूल विकार को भाव कहते हैं। विकार का अर्थ है परिवर्तन ( अन्यथाभाव ) । यह परिवर्तन दो प्रकार का होता है -- अंतःकरण का और शरीर का। आंतरिक परिवर्तन दो प्रकार का होता है-स्थायी भाव और व्यभिचारी भाव ( अस्थायी भाव )। शारीरिक परिवर्तन सात्त्विकभावादि होते हैं। यह नहीं समझना चाहिए कि देहविकार के लिए 'भाव' पद का व्यवहार गौरण है । भेदकता है अन्य भावों को अपने शासन में रखने की शक्ति की ! मनोविकार अन्य भावों को अपने शासन में रख सकता है, देहविकार नहीं। स्थायी भाव और व्यभिचारी भाव में इतना ही अंतर है कि स्थायी भाव चरम समय पर्यंत स्थिर रहता है इसी से स्थायी कहलाता है। दूसरा अस्थिर होता है। इस प्रकार स्थायी भाव मनोविकार में प्रधान होता है । प्रधान भाव होने के कारण यह सामाजिक के हृदय में उबुद्ध होकर रस- चर्वणा करता है व्यभिचारी या संचारी ऐसा नहीं कर पाता। पर 'विभाव' भाव नहीं है। जो भाव को विशेषतया उत्पादित करते हैं वे विभाव कहलाते हैं । जो रसों को अनुभावित करते हैं, अनुभव में लाते हैं, वे अनुभाव कहलाते हैं। विभाव भाव के कारण होते हैं और अनुभाव उसके कार्य । कदाचित् किसी के कारण और कार्य में भी उसका अंश होता है ऐसा मानकर उन्हें भी भाव ही कह दिया गया है। विभाव का लक्षण करते हुए केशव उन्हें रस-भाव का कारण कहते ही हैं- जिनते जगत अनेक रस प्रगट होत अनयास । तिनसौ बिमति बिभाव कहि, बरनत केसवदास ॥६॥३ विभाव के दो भेद यथाशास्त्र ही हैं- आलंबन और उद्दीपन । इनमें आलंबन का लक्षण यह है- जिन्हें प्रतन अवलंबई ते प्राबलन जिनतें दीपति होति है ते उद्दीप बखानि ॥६५ यहाँ 'अतन' शब्द विचारणीय है। यदि प्रालंबन का लक्षण सभी रसों जानि।