२५८ रसिकप्रिया ठादे, तरनि-तनजा-तोर तरबर-तर तारी दै दै हँसत कुँवर कान्ह प्यारी सों।१४। शब्दार्थ-आधे आधे पाखरनि = अस्फुट वचनों से। आछी = मनो- हारिणी । यारी = मित्रता। सुहाइ = अच्छा लगता है। दुरि = छिपकर । हुस्यारी-चतुराई । तरनि = सूर्य । तनूजा = पुत्री। तरनि-तनूजा = यमुना । तर=तले, नीचे। भावार्थ-( सखी का वचन सखी से ) वे हँसते हँसते गिर गिर पड़ते हैं, फिर उठते हैं और रीझ रीझकर एक दूसरे के गले लगते हैं। बीच बीच में ( कभी कभी ) वे विलक्षण शोभा ( मुद्रा ) के साथ दूसरे से पृथक् भी हो जाते हैं । वे उतावले होकर परस्पर अस्फुट अक्षरों से अच्छी अच्छी बातें भी मनोहारिणी मित्रता के साथ करते हैं। उनकी बातें सुनने में तो अच्छी लगती हैं. पर समझ में कुछ नहीं आतीं । तेरी शपथ मैंने छिपकर चतुराई से देखा हैं ( देख आई हूँ, तू भी चल ), यमुना के तट पर तरुवर ( कदंब ) के नीचे खड़े होकर कुँवर कन्हैया प्यारी राधिका से ताल बजा बजाकर हँस रहे हैं। अलंकार-समुच्चय । अथ परिहास-लक्षण-(दोहा) (४७८) जहँ परिजन सब हँसि उठे, तजि दंपति की कानि । केसव कौनहुँ बुद्धिबल सो परिहास बखानि ।१५। शब्दार्थ-परिजन = सखा, सखी आदि निकट रहनेवाले लोग । कानि - मर्यादा। श्रीराधिकाजू को परिहास, यथा-( सवैया ) (४७६) आई है एक महाबन ते तिय गावति मानो गिरा पगु धारी। सुदरता जनु काम की कामिनि बोलि कह्यो बृषभानदुलारी। गोपिकै ल्याइ गुपालहि वै अकुलाइ मिलीं उठि आदर भारी । केसव भेटत ही भरि अंक हँसी सब कीक दै गोपकुमारी ।१६) शब्दार्थ-गिरासरस्वती। पगु धारी= प्राई, पधारी। बोलि = बुनाकर । कीक दै-खिलखिलाकर । भावार्थ-(सखियों ने राधा का मान छुड़ाने के लिए अथवा विनोद के लिए श्रीकृष्ण को गोपी के वेश में गीत गाते हुए आने को कहा इधर) राधिका को बुलाकर उनसे कहा कि 'महावन में रहनेवाली एक गायिका गाती हुई १४-यारी-धरी । कळू-अब । केसौदास-कैसौराइ । १५-तनूजा- तनैया। कुँवर-कुमार । कान्ह-काहू । १६-मानों-गीत । बोलि-टेरि । गुपालहि वै-गुपाल हिये । उठि-करि । प्रोदर-सादर । कोक-कूक । कोक दै-की कहै।
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