पृष्ठ:रसिकप्रिया.djvu/२५४

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'=चल चाल- चर्तुदश प्रभाव शब्दार्थ-सुख . मुखवास = मुख की नैसर्गिक सुगंध । प्राधे० = प्राधे अक्षरों के ही शब्द निकलें, अस्फुट शब्द निकलें। भावार्थ-जहाँ निःशंक हँसने से मुख की नैसर्गिक सुगंध निकलने लगे और अस्फुट शब्द भी हों वहाँ अतिहास होता है । श्रीराधिकाजू को अतिहास, यथा-( कवित्त) (४७६) तैसीयै जगत ज्योति सीस सीसफूलनि की, चिलकत तरुनि तिलक तेरे भाल को। तैसीये दसन दुति दमकति केसौदास, तैसोई लसत लाल लाल कंठमाल को। तैसीय चमक चारु चिबुक कपोलनि को, चमकत देखौ नकमोती चल चाल को। हरें हरें हँसि नेक चतुर चपलननि, चित्त चकौंचधै मेरे सदुनगुशाल को ११३॥ शब्दार्थ-चिलकत-चमकता है । तरुनि-नायिका। लाल = लाल रंग- वाला। लाल - माणिक । चिबुक == ठुड्ढी। चल चाल को वाला, चंचल । हरें हरें = धीरे धीरे । भावार्थ-(सखी-वचन नायिका प्रति ) हे तरुणी, एक तो सिर पर के शीशफूल वैसे ही (अत्यंत दीप्तिपूर्वक ) चमक रहे हैं, दूसरे तेरे माथे पर लगा तिलक भी वैसा ही चमचमा रहा है । तीसरे दांतों की युति भी वैसी ही हो रही है, चौथे कंठहार में लगा लाल वर्णवाला माणिक भी दमक रहा है, पांचवें सुंदर ठुड्ढी और कपोलों की भी वैसी ही चमक है, छठे नाक ( की बेसर) का मोती भी वैसा ही दमक रहा है। ( इतनी अधिक चमक है कि कहा नहीं जाता)। अतः ऐ चतुर चंचल नेत्रवाली, तू थोड़ा धीरे धीरे हँस क्योंकि ( इतनी चर्मकों के कारण ) मेरे मदनगोपाल का चित्त चकाचौंध में पड़कर व्यग्र हो जाता है। श्रीकृष्णजू को अतिहास, यथा-( कबित्त) (४७७) गिरि गिरि उठि उठि रीझि रीझि लावै कंठ, बीच बीच न्यारे होत छबि न्यारी न्यारी सों। आपुस में अकुलाइ आधे आधे श्राखरनि, आली आछी बात कहैं आछी एक यारी सों। सुनत सुहाइ सब समुझि परै न कछू , केसौदास की सौं दुरि देखे मैं हुस्यारी सों। १३-चिलकत-झलकन । तरुनि-तिल कु, सिलकु, तिलनि । तैसीय- तैसेई । लाल लाल-लाल कंठ । चमकत-झलकत ।