पृष्ठ:रसिकप्रिया.djvu/२५

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( २५ ) साक्षाचित्रे स्वप्ने स्याद्दर्शनमेवमिन्द्रजाले-वा। देशे काले भंग्यां साधु तदाकर्णनं च स्यात् ।। १२॥३१ उज्ज्वलनीलमरिण में भी दर्शन और श्रवण पृथक् हैं- साक्षात्कृष्णस्य चित्रे च स्यात्स्वप्नादौ च दर्शनम् । वन्दिदूतीसखीवस्त्राद् गीतादेश्व श्रुतिर्भवेत् । हिंदी में 'श्रवण-दर्शन' करके दर्शन के ही चार भेद कर दिए गए हैं। यहाँ 'दर्शन' शब्द व्यापक कर दिया गया । श्रवण द्वारा प्रियगुणादि का कीर्तन सुनने पर भी उसके रूप का प्रानयन होता है। इसी से 'श्रवण-दर्शन' का ग्रहण किया गया है। पंचम प्रभाव में दंपति-चेष्टा का वर्णन है। जैसा कहा जा चुका है इन्होंने अपेक्षित लक्षणादि का नियोजन और साथ ही वांछित विस्तार करने का पूरा प्रयास किया है। प्रेम की अभिव्यक्ति के उपाय का नाम चेष्टा है । प्रिय के अन्यत्र देखने पर उसकी ओर देखना, उसके देखने पर अन्यत्र देखना आदि में केशव ने विस्तार किया- कबहूँ श्रुतिकंडू करै पारस सों ऐंडाइ । केसवदास बिलास सों बारबार जमुहाइ ॥ ५॥६ यह उद्भावना केशव की नहीं है, पारंपरिक है। 'शृंगारतिलक' में नहीं है । केशव ने अवधानतापूर्वक आकलन किया है। ठीक इसी प्रकार स्वयं दूतत्व का प्रसंग वहाँ न होने पर भी नियोजित किया गया है (देखिए ५।१३) इस प्रभाव में इन्होंने स्पष्ट घोषणा कर दी है कि वेश्या का वर्णन क्यों नहीं किया गया- मौर जु तरुनी तीसरी क्यों बरनौ यहि ठौर । रस में बिरस न बरनिये कहत रसिकसिरमौर ।। ३३६ शास्त्रीय दृष्टि से परकीया और सामान्या में रसाभास मानते हैं । पर जैसा पहले कह पाए हैं, परकीयाभाव भक्तिप्रवाह में साधना की दृष्टि से ग्राह्य हो गया था। इसलिए उसका तो कुछ विवेचन इन्होंने कर दिया, पर सामान्या को 'रसाभास' भी नहीं विरस ( रसहीन ) कहकर परित्यक्त कर दिया । षष्ठ प्रभाव में 'भाव' का विचार है । 'शृंगारतिलक' में यह विषय नहीं वरिणत है । भाव का लक्षण इन्होंने यों किया है- प्रानन लोचन बचन मग प्रगटत मन की बात । ताही सों सब कहत हैं भाव कबिन के तात ॥६॥ इसमें मन की बात अर्थात् मनोविकार को भाव कहा गया है । पर इस भाव के पांच प्रकार यों कहे गए हैं-