२४६ रसिकप्रिया दई निरदई दई याहि काहे ऐसी मति, जारति जु रैनदिन दाह ऐसे गात की। कैसेंहूँ न मानै हौ मनाइ हारी केसौराय; बोलि हारी कोकिला बुलाइ हारी चातकी ।१२। शब्दार्थ-कादंबिनी-मेघावली, बादलों की घटा। झुकि-क्रोध करके । बात = वायु। भावार्थ-सखियां उसे शिक्षा देकर हार मान बैठी। मेघों की घटा छाकर उसे डरवाकर हार गई। दिगंत में आधी रात के समय चमकनेवाली बिजली अपनी दमक दिखाकर हार गई। रति कुपित हो होकर हार गई, कामदेव अपनी मार मारकर थक गया। त्रिविध ( शीतल, मंद, सुगंध ) वायु की गति भी उसे झिझोड़कर शांत हो बैठी। न जाने उस निर्दय दैव ने उसे कैसी बुद्धि दी है कि वह रातदिन कोमल शरीर को ऐसी जलन से जला रही है । यह तो किसी प्रकार भी मानती ही नहीं। कोयल बोलते बोलते चुप हो गई । चातकी भी 'पी पी' करके उसे बुला न सकी। यहां तक कि उसकी सखी होकर भी मैं मनाते मनाते ऊब गई, पर उसने न माना, न माना (अब यदि आप चलकर मनाएँ तो कदाचित् मान जाय )। राधिका को शृंगार-( सवैया ) (४५४) दीनो मैं पाइ मँवाइ महावर आँज्यो मैं ऑजन आँ खि सुहाई । भूषन भूषित कीने मैं केसव माल मनोहर मैं पहिराई । दर्पन लै अब दीपति देखि सखी, सब अंग सिँगारि सिधाई । वंक बिलोकनि, अंक लै पान खवावै को कान्ह-कुमार की नाई ।१३। शब्दार्थ-दीनो मैं०=मैंने पैरों को झां से रगड़कर महावर लगा दिया। आज्यौ=(आँखों) में अंजन लगाया । आँज्यौ मैं० = मैंने सुंदर आँखों में अंजन भी लगा दिया । हू = भी । कर = हाथ में । देखि = देखो। सिधाई : भोले भाले ढंग से ( मैंने ) । बंक बिलोकनि :- अब तिरछी दृष्टि करके तुझे गोद में लेकर श्रीकृष्ण की तरह भला पान कौन खिलाए (मुझ सीधी सादी से तो वैसी मुद्रा हो नहीं सकती, तू उन्हीं के पास चल । वे ही तुझे इस प्रकार से पान खिलाएँगे)। कृष्ण को शृंगार-( सवैया ) (४५५) पाग बनी अरु बागो बन्यो पटुआ पटुका कटि राजत नीको । सोंधो बन्यो अति चारु चढ़ावत हार बन्यो उर भावतो जीको। १२-दिसि-निसि । झुकि झुकि-झकी झुकि । याहि-वाहि । कहि-काहे । निरदई०-निरदई वाहि ऐसी कहि मति दई । दिन-ऐन । ऐसे-ऐसी । हौं- हो । केसौराय-केसीदास । १३-प्रांज्यो-प्रांजो । मैं-हू, ही पै । प्रब-कर ।
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