त्रयोदश प्रभाव २४५ शब्दार्थ-आजु के० यदि दीवाली की रात सानंद मनाई जाय तो अगले वर्ष की दीवाली तक अच्छे दिन बीतते हैं। पै= से। मति = बुद्धि मान की निद्रा से जाग उठी, मान छोड़कर बुद्धि कल्याण-साधन में लगी। चित्त-विहार=मनोरंजन । सूचना-इस छंद के विषय में भी सरदार लिखते हैं -'पूर्ववत् यह भी अन्य को बनायो है । तातें नारायण कवि तिलक नाहीं लिख्यो।' राधिका को मिलैबो-( कबित्त ) (४५२) जौ हौं गनौं औगुननि तौ तूं गनै गुनगन, जौ हौं गनौं गुन तौ तूं औगुन के गन में । केसौदास ऐसें प्रीति छिपावति छलनि में, जैसें छनछबि छूटै छिप जाइ घन में। भारी है निठुर निसि भादों की भयावनी में, सु क्यों बसै घर जाको पीउ बसै बन में। बैठे तें उठावै, उठि चले तें मचलि रहै, सोई मेरी क्यों न कहै जोई तेरे मन में ।११। शब्दार्थ-छन छबि = बिजली। ऐसें० = तू अपनी प्रीति छल करके ऐसे छिपाती है जैसे बिजली चमकती है, पर बादल में छिप जाती है । तेरे प्रेम की केवल झलक मिलती है । जौ हौं०=मैं प्रिय के अवगुणों को गिनती हूँ तो तू गुण गिनती है, मैं गुण गिनती हूं तो तू अवगुण गिनती है। सु क्यों जिसका प्रिय वन में बसता है वह घर में कैसे बस सकेगी। मेरी - मेरी ( प्यारी ) । उठि० = यदि उठकर चलती हूँ तो न जाने देने के लिए मचलने लगती है । जो तेरे मन में है वह क्यों नहीं कहती ( कि मुझे प्रियतम से ले चलकर मिला दे)। कृष्ण को मिलैबो-( कबित्त ) (४५३) सिखै हारी सखी डरपाइ हारी कादंबिनी, दामिनी दिखाइ हारी दिसि अधरात की । झुकि झुकि हारी रति मारि मारि हारयो मार, हारी झकझोरति त्रिबिध गति बात की। ११-- राधिका--जिया । भौगुननि-ौगुन । गुनगन-गुनन गन । भौगुन के गन में -अगुने गनन में । केशोदा-सौराह । ऐसे-ऐसी । छनछबि-छन- रुचि । छनथपि-छिमछबि छूटि छिप जाइ धन मैं, छिन छूटि छबि छिपै छुटि धन मैं । उ क्यों-कैसे ! तें मचलि०-तहीं बैठि रहै । मेरी०-क्यों न कहै बीर, क्यों न कहै प्यारी।
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