२४४ रसिकप्रिया पाइनि लागत सोंधो चढ़ावत पान खवावतही निसि जागे। कान्ह चलौ उठि बैठे कहा ? मन मूसि परायो ब रूसन लागे । शब्दार्थ-भूषन-भेद = विविध प्रकार के गहने । बनाइकै = सजाकर । बागे= वस्त्र । राग = प्रेम । सोंधो = सुगंध । मूसि = चुराकर । रूसन लागे = रूठने लगे। भावार्थ -उस समय का तो ध्यान कीजिए जब विविध प्रकार के गहनों, पुष्पों और वस्त्रों से सज कर उसे आकृष्ट करने के लिए प्राया करते थे। भाग्य, सोहाग और प्रेम को बढ़ाकर हृदय से उस पर अनुरक्त हुए । पैरों पड़ते, सुगंध- द्रव्य लगाते और पान खिलाते हुए ही तुम रात रात भर जागते रह जाते थे । अतः हे कृष्ण, उठकर चलिए। यहाँ क्या बैठे हैं, दूसरे का मन चुराकर अब रूठने चले हैं ? .. राधा को मिलैवो-( सवैया) (४५०) दुर्लभ देवनिहूँ को सु तो हरि को मन हाँ सिन हो हरि लीनी । टारहु जै हिय तें कबहूँ अब ज्यों गुरु को दियो मंत्र प्रबीनी । लेत लियो तौ न देत दियो अब मानहु ता दिन दुख्ख नवीनो। माँगन आवै तौ दीजै भटू अपनो मन, जौ वह जाइ न दीनो ।। शब्दार्थ ( जिन ) मत । लेति० = लेते समय तो बड़े अानंद से उसे ले लिया, पर अब वह दिया नहीं जाता, प्रत्युत देने में एक नया दुःख ही खड़ा हो जाता है। अतः यदि मांगने आएँ तो श्रीकृष्ण को चाहे उनका मन मत लौटाना पर अपना मन दे देना । सूचना-यह छंद सरदार की टीका में तो है, पर उन्होंने लिखा है- 'यह कबित्त केशव को नाहीं तातें नारायण कवि नाहीं लिखो' । हस्तलिखित प्रतियों में भी यह छंद है। लीथोवाली प्रति में नहीं है। इसमें केशव की छाप नहीं है। पुनः-( सवैया) (४५१) बाजुदेवारि की राति जौ कीजै तौ आजु के द्योस लौं है है सभागी। बात सुनी जननी पै जबै तब हा मति मान का नोंद - जागी । अंग सिँगारि निहारि निसा तिन चित्तविहारनि सो अनरागी। दीप दै देवनि जाह ना मिति सवराय मा खलन लागो ।१०। ..-पा। चढ़ावट-लगायत । निसि-रसपागे। परायो ब-परायो सु । ६-मन-पुर। हो- । हरि-हठि। जै-जो। तीन देत-तौन मानहु सौं मानिही तादिन । दुरुख-दुस्ट । १०-पुन:-मध्य को मिलैबो। तौ-सु । जब-जहीं । केसवराय-केसवदास ।
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