द्वादश प्रभाव - सूचना-'नजर' लगने और दृष्टि लगने (प्रेम करने ) की एक सी ही अवस्था मानी गई है। संन्यासिनि को वचन कृष्ण सों, यथा-( कबित्त) (४३७) सीतलहू हीतल तिहारें न बसति वह, तुम न तजत तिल ताको उर ताप-गेहु। प्रापनो ज्यौ हीरा सो पराएँ हाथ ब्रजनाथ, दैकै तौ अकाथ हाथ मैन ऐसो मन लेहु । एते पर केसौदास तुम्है न प्रवाह वाहि, वहे जक लागी भागी भूख सुख भूल्यो देहु । माडौ मुख छाडौ छिन छल न छबीले लाल, ऐसी तौ गँवारिन सों तुमहूँ निबाहौ नेहु ॥२६॥ शब्दार्थ-हीतल = हृदय । तिल = थोड़ा भी। ताप गेहु ताप का घर, उत्तप्त । ज्यो-जी, चित्त । अकाथ व्यर्थ । मैन = मोम । प्रवाह %D (परवाह ) चिंता। वाहि %D उसे । जक - रट, धुन । माड़ो केसर आदि से सुशोभित करते हो। भावार्थ- छबीले लाल, तुम भी कैसी गँवारिन से प्रेम का निर्वाह कर रहे हो। वह तो तुम्हारे शीतल हृदय में बसती नहीं और तुम उसके उत्तप्त हृदय को क्षण भर के लिए भी नहीं छोड़ते (कितना कष्ट सहते हो)। (आप ऐसे उदार हैं कि ) अपना हीरे के ऐसा ( मूल्यवान् ) मन दूसरे के हाथ देकर व्यर्थ ही उसका मोम के ऐसा ( तुच्छ ) मन लिये हुए हैं। इतने पर भी आपको तो अपने मन की परवा नहीं, पर उसे अपने मन की धुन लगी है । उसी धुन में उसकी भूख भाग गई है, देह की सुध नहीं, सुख भूला हुआ है। फिर भी तुम ( केसर से ) उसका मुख सुशोभित करते हो और वह क्षण भर के लिए छल नहीं छोड़ती। ( व्यंग्य यह है कि आपका हृदय उसके वियोग से उत्तप्त नहीं, उसे 'आप भूले हुए हैं, पर वह विरह से, जलती हुई भी क्षण भर के लिए आपको नहीं भुलाती। आपने अपना हीरे सा कठोर मन दूसरों को सौंप दिया है और उसका मोम सा कोमल हृदय मापके वश में है। आपको तो अपनी कोई चिंता नहीं पर वह अपने मन की बराबर चिंता करती है, इसी मन की दुर्दशा में भूख मारी गई है, देह की सुधबुध नहीं रह गई है। आपके वियोग में उसका मुंह केसर की तरह २६-तनत-तबहु । मापनो-मापने । ज्यो-जो । सो-को । प्रकाय हाप- काय साथ । मैन-माखन को। केसीदास-केसोराइ। देहु-गेट : माड़ो मांना
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