है। जैसे प्रथम मिलनस्थान शृंगारतिलक में जितने हैं उनसे रसिकप्रिया में 'वनविहार' अधिक है। वनमाली श्रीकृष्ण के चरित में वनविहार अत्यंत अपेक्षित था । नूतन संगम 'शृंगारतिलक' में ये हैं- धात्रीसखीवेश्मनि रात्रिचारे महोत्सवे तीव्रतमे भये च । निमन्त्रणे व्याधिमिषेरण शून्ये गेहे तयोर्नूतनसंगम: स्यात् ।।२।२७ रसिकप्रिया में प्रथम मिलनस्थान ये हैं- जनी सहेली थाइ घर सूने घर मिसिचार । अति भय उत्सव ब्याधि मिस न्यौते सु बनबिहार ।।५।२४ एक ओर 'जनी' अधिक है दूसरी ओर 'बनबिहार'। इससे स्पष्ट है कि केशव ने अनुकथन करते हुए अपनी मनोदृष्टि भी खुली रखी है। इसमें शृंगारतिलक के उदाहरणों से भी कुछ सहारा कहीं कहीं लिया गया है, उल्था नहीं किया गया है। रामचंद्र चंद्रिका में कुछ स्थल अनूदित हैं, पर रसिकप्रिया में केवल प्रेरणा भर ली गई है। उदाहरण इन्होंने स्वतः निर्मित किए हैं। प्रथम प्रभाव में मंगलाचरण की चर्चा पहले की जा चुकी है। द्वितीय प्रभाव में जिन छंदों में कुछ प्रेरणा दिखाई देती है उनमें से एक यहाँ मिलान के लिए उद्धृत करते हैं । अनुकूल नायक का उदाहरण शृंगार- तिलक में यह है- प्रस्माकं सखि वाससी न रुचिरे प्रवेयकं नोज्ज्वलं नो वका गतिरुद्धतं न हसितं नवास्ति कश्चिन्मयः । कित्वन्येऽपि जना वदन्ति सुभगोऽप्यस्याः प्रियो नान्यतो । इष्टि निक्षपतीति विश्वमियता मन्यामहे दुास्थितम् ।। 'रसिकप्रिया' में 'अन्यच्च' उदाहरण है- मेरे तो नाहिन चंचल लोचन नाहिन केसब बानी सुधाई। जानौ न भूषनभेद के भावनि भूलिहू मैं नहिं भौंह चढ़ाई। भोरेहूँ ना चितयो हरि प्रोर त्यों घेर करें इहिं भौति लुगाई । रंचक तौ चनुराई न चित्तहि कान्ह भए बस काहे ते माई ॥२२॥ रसिकप्रिया का निर्माण करते समय केशव आचार्य और कवि दोनों थे । आगे चलकर उनका आचार्य-पक्ष प्रबल होता गया । 'रसिकप्रिया' और 'राम- चंद्रचंद्रिका' को देखकर सहसा कोई विश्वास नहीं कर पाता कि एक ही की दोनों रचनाएँ हैं । संस्कृत-प्रबंधकाव्यों की परंपरा पहले ही पुष्ट हो चुकी थी। संस्कृत में अमरुशतक ऐसे मुक्तककाव्य उतने नहीं हैं। हिंदी में केशवदास ने रसिकप्रिया में अपने कविरूप का जैसा निखार दिखाया वह हिंदी की प्रभूत
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