पृष्ठ:रसिकप्रिया.djvu/२१६

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२२० रसिकप्रिया चक्रवाक की भांति चंद्रमा को देखकर अत्यंत दुखी होते हैं। मोर की वाणी सुन जैसे सर्प बिलों में छिप जाता है वैसे ये भी गलते जाते हैं । बादलों की ध्वनि से जवासे की भांति जल उठते हैं। भौंरे की भांति वन में घूमते हैं, योगी की तरह रात में जागते हैं और शक्ति की भांति तेरा ही नाम जपा करते हैं। अलंकार-भिन्नधर्मा मालोपमा । सूचना-‘रामचंद्र-चंद्रिका में 'स्याम के स्थान' पर 'राम' रखकर इसे राम के विरह-निवेदन का छंद बना दिया गया है । (दोहा) (४११) केसवदास प्रवास को, कह्यो जथामति साज। राधा-हरि बाधाहरन, बरनौं सखी-समाज ।१६) इति श्रीमन्महाराजकुमारइंद्रजीतविरचितायां रसिकप्रियायां संभोगशृंगार- प्रवासवर्णनं नामकादशः प्रभावः ॥११॥ द्वादश प्रभाव 9 7 अथ सखी-वर्णन-( दोहा ) (४१२) धाइ, जनी, नाइन, नटी, प्रगट परोसिनि नारि । मालिनि, बरइनि, सिल्पिनी, चुरिहेरनी, सुनारि ॥१॥ (४१३) रामजनी, संन्यासिनी, पटु पटुवा की बाल । केसव नायक नायिका, सखी करहिं सब काल ।२। शब्दार्थ -घाइधात्री। जनी = दासी, खवासिन । सिल्पिनी: चितेरिन, चित्र बनानेवाली। चुरिहेरनी = चुड़िहारिन । रामजनी = जिसके जनक का पता न चलता हो । पटु = चतुर । पटुवा की बाल = पटहारे की स्त्री पटहारिन । धाइ को वचन राधिका सों, यथा-( सवैया ) (४१४) मोहन-साथ कहा निसि-योस रहै सतरंजहि के मिस बैठी। केसव क्योहूँ सुनै महतारी तौ राखहिरी घर ही महँ पैठी। २-पटु-बटु । पटुवा-पटवा । करहि-करौ ।