पृष्ठ:रसिकप्रिया.djvu/२१५

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एकादश प्रभाव २१३. (छिप जाने के लिए ) या छिपना चाहती है; नष्ट हो जाना चाहती है ( नायिका के पक्ष ) । ऐसी= वह ऐसी हो गई है कि । सूरति = सुधि, चेतना । भावार्थ-( सखी का पत्र नायक को ) हे कुवर कान्ह, आपके विरह में उसकी ऐसी दशा हो गई है कि वह भौंरी की भांति वन-वीथिकानों में घूमा करती है । हंसिनी की भांति मृणाल धारण करती है ( तोड़ती रहती है)। चातकी की भांति 'पी पी' (शब्द और प्रिय का नाम) चित्त में रटा करती है। चंद्रमा को देखकर चकई की भांति चुप हो जाती है । हरिणी की भांति केसरि-कानन को ( सिंह जिस वन में रहता है, जिस वन में केसर होती है उसे ) देखती नहीं। मोर की केका सुनकर सर्पिणी की भाँति 'बिलान ही' चाहती ( बिलों की ओर देखती है; नष्ट हो जाना चाहती है)। राधिका की मूर्ति चेतनाहीन होती जा रही है होश-हवास ठिकाने नहीं है । अलंकार-भिन्नधर्मा मालोपमा । श्रीकृष्णजू की सखी की पत्री, यथा-( कबित्त ) (४१०) दीरघ दरीनि बसैं केसवदास केसरी ज्यों, केसरी को दोख बनकरी ज्यों कपत हैं। बासर को संपदा उलूक ज्यों न चितवत, चकवा ज्यों चंद चितै चौगुनो चपत है। केका सुनि ब्याल ज्यों बिलात जात घनस्याम, घननि की घोरनि जवासे ज्यों तपत हैं। भौंर ज्यों मैंवत बन जोगी ज्यों जगत निसि, साकत ज्यों स्याम नाम तेरोई जपत हैं।१८। शब्दार्थ--दीरच = ( दीर्घ) बड़ी, गंभीर । दरीन = गुफाएँ । केसरी सिंह; केसर । करी = हाथी । बासर = दिन । संपदा-शोभा। चपत हैं 3 दुखी होता है । बिलात जात-छिपता जाता है; गलते या नष्ट होते जाते हैं । घोर = गर्जन से । तपत = जलता है । साकत = शक्ति के उपासक, शक्ति । भावार्थ-(कृष्ण की सखी की पत्रिका राधिका को) सिंह की भांति बड़ी बड़ी कंदराओं में ( एकांत में ) रहते हैं । केसरो ( सिंह ) को देखकर जैसे जंगली हाथी कांपता है वैसे ही केसर को देखकर ये काँपते हैं। उल्लू जैसे दिन की शोभा नहीं देखता वैसे ही ये भी दिन में आंखें मूदे पड़े रहते हैं। १८-सखी को पत्री-प्रिय को विरहनिवेदन, श्रीकृष्ण की पत्री, श्रीकृष्ण की सखी की पत्री राधिका सों। केसौदास-केसोराइ । संपदा-संपति ! उलूक-चकोर । चिते-ही तें । निसि-रैनि । साकत-चातक ।