२१४ रसिकप्रिया जै मुनि जै मुनि कै बची जोन्ह की जामिनी, पै न अजौं सुधि भूली । क्यों जियै कैसो करौं बहुरयौ बिष सी विसनी बिसवासिनी फूली।१०। शब्दार्थ --- केकी=मयूर । कुलाहल - (कोलाहल) शोर । हूल पीड़ा । लूली=पंगुल । तूली = रूई (वाला) । मुनि = अगस्त्य मुनि । बिष सी विष की भांति कष्टदायिनी । बिसनी = कमलिनी। बिसवासिनी = ( व्रजभाषा का विशिष्ट प्रयोग) विश्वासघातिनी। भावार्थ-( सखी की उक्ति सखी प्रति ) हे सखी, कोयल और मोरों का कोलाहल सुनकर उस विरहिणी नायिका के हृदय में पीड़ा होने लगी और उसकी बुद्धि पंगु हो गई (वह किंकर्तव्यविमूढ़ हो गई)। शीतल एवम् सुगंधित वायु के चलने से शरीर से धैर्य रूई की भांति उड़ गया । ( उस दिन तो समुद्र का शोषण करनेवाले ) अगस्त्य मुनि का बार-बार जयकार करके वह उस चाँदनी रात्रि में बची (क्योंकि चंद्रमा समुद्र का पुत्र है, अपने पिता के शोषक के नाम से डर जाएगा) पर उस दिन उसे जो कष्ट उस चांदनी रात्रि से मिला उसके कारण वह उसे आज तक भूल नहीं सकी। अब ( प्रभात के समय ) वह कैसे जी सकेगी और क्या करेगी, क्योंकि विष की भांति मार डालनेवाली विश्वासघातिनी कमलिनी भी फूलने लगी है। सूचना-विरहावस्था में संयोग की सुखदायिनी वस्तुएँ दुःखद हो जाती हैं । इसी का वर्णन केसवदासजी ने 'विरह-भयविभ्रम' नाम से अलग कर दिया है । श्रीकृष्णजू को प्रच्छन्न प्रवासविरह, यथा-( सवैया ) (४०३)जिनि बोलि सुबोल अमोल, सबै अँग केलिकलोलनि मोल लिये। जिनको चित लालची लोचन रूप अनूप पियूष सु पोय जिये। जिनके पद केसव पानि छिये सुख मानि सबै दुख दूरि किये । तिनको सँग छूटत ही फिटु रे फटि कोटिक टूक भयो न हिये ।११। शब्दार्थ-छिरें = छूने पर । छूटत = छूटने से । फिटु = धिक्कार । भावार्थ-( नायक की उक्ति आत्मगत ) जिन्होंने सुंदर अमूल्य वाणी बोलकर और क्रीड़ा के किल्लोल (मुद्राओं ) से मेरे सभी अंग मोल ले लिए ( जिनकी वाणी और मुद्रा पर मेरा शरीर निछावर था ), जिनके अनेक रूप ( सौंदर्य ) के अमृत का नेत्रों द्वारा पान करके मेरा लालची चित्त जीता रहा, जिनके चरणों को हाथ से छूकर सब दुःख दूर करके मैंने सुख माना उनका १०-जैमुनि०- जामनि जामनि ! जिय-जियौ । करौ करे। बिसनी- बिनसी । ११-बिनके पद-जिनको पद। छिये-छवे, हिये । छूटत-फूटत । फिटु-फिटि।
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