२१० रसिकप्रिया हृदय-कमल-नैन देखिकै कमल नैन, होहुँगी कमलनैनि और हौं कहा कहौं । आप घने घनस्याम धनहीं से होत धन, सावन के द्योस घनस्याम बिनु क्यों रहौं ।४। शब्दार्थ-हरित हरित-हरे हरे । हार=खेत, जंगल । हरत-हर लेते हैं । हरिननैनी = मगनेत्री (चपलतापूर्वक चारो ओर देखनेवाली)। वनमाली वन से घिरा हुमा प्रदेश । बनमाली = ( बन जल+माली = समूह से युक्त ) बादल । बनमाली = श्रीकृष्ण । हृदय कमल नैन - हृदय की आँख से, ध्यान करके । कमलनैनि = जलपूर्ण नेत्र वाली (कमलजल)। आप = जल । घने = अत्यधिक । घन से - बहुत । घनहीं = हथौड़े की भांति । भावार्थ-(विरहिणी नायिका किसी सखी के साथ घूम रही है और कह रही है ) इन हरे हरे खेतों को देखकर तेरा हृदय मुग्ध हो गया है, पर मैं परेशान हो गई, मैं हरिणनेत्री होकर ( चंचलतापूर्वक इधर उधर देखती हुई भी ) हरि को कहीं भी देख नहीं पाती हूँ। वनों से घिरे हुए व्रज पर जल से भरे हुए बादल बरस रहे हैं । वनमाली (श्रीकृष्ण) दूर हैं, मैं दुःख कैसे सहूँ । हृदयकमल के नेत्रों से कमलनेत्रवाले श्रीकृष्ण को देखकर मैं जलपूर्ण नेत्रवाली हो जाऊँगी ( उनका ध्यान करने से मेरे नेत्रों में आंसू छलक आएंगे ) । और अधिक मैं क्या कहूँ अत्यधिक जल से भरे हुए अत्यंत काले ये बादल हथौड़े की भाँति कष्टदायक प्रतीत होते हैं। इन सावन के दिनों में भला घनश्याम के बिना मैं कैसे रह सकती हूँ ( जी सकती हूँ ) । सूचना-नायिका का अत्यंत दु.खप्रकाश होने से करुणविरह है, सहेली बातें कर रही है, अतः प्रकाश है। अलंकार-यमक। श्रीकृष्णजू को प्रच्छन्न करुणविरह, यथा-( कबित्त ) (३६७) जैसें मिल्यो प्रथम स्रवन-मग जाइ मन, रवन भवन कीने अलिक अलक में। मन मिले मिले नैन केसौदास सबिलास, छबि-श्रास भूलि रहे कपोल-फलक में । नैन मिलें मिल्यो ज्ञान सकल सयान सजि, तजि अभिमान भूल्यो तन को झलक में । ४-हियो-हिये । हरत-हेरात । धने-घनघने । सावन०-घननि के घोष, स्यामनि के द्यौस ।
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