28 एकादश प्रभाव अथ करुणाविरह-लक्षण-(दोहा) (३६३) छूटि जात केसव जहाँ, सुख के सबै उपाय । करुनारस उपजत तहाँ, आपुन तें अकुलाय ।१। (३६४) सुख में दुख क्यों बरनियै, यह बरनत ब्यौहार । तदपि प्रसंगहि पाइ कछु, बरनत मति-अनुसार ।। अथ राधिकाजू को प्रच्छन्न करुणाविरह, यथा-( सवैया ) (३६५) मैं पठई मति लेन सखी सु रही मिलिकै मिलिबे कहँ आने । जाइ मिले दिन ही दृग-दूत दयाल सों देहदसा न बखाने । प्रेरत पैज कियें तन प्राननि जोग के और प्रयोग निदानै । लाज तें बोलन पाऊँ न केसव ऐसे ही कोऊ कहा दुख जाने ।३। शब्दार्थ-पानै = ले पाए । प्रेरत = प्रेरित करता है । पैज = प्रतिज्ञा । और = अन्य, दूसरे । निदानै = निदान कर, खोजकर, सोचकर । भावार्थ-(नायिका की उक्ति मन से) मैंने मति रूपी सखी को नायक को ले आने के लिए भेजा पर वह तो वहीं उनसे मिलकर रह गई, उन्हें मुझसे मिलाने के लिए कौन लाता। इतना ही नहीं नेत्र रूपी दूत भी दयालु (नायक ) से जा मिले, जाकर मेरी देहदशा का वर्णन नहीं किया। योग के अन्य प्रयोग सोचकर अब मेरा शरीर प्रतिज्ञा करके (कि अवश्य भेंट होगी ) प्राणों को भेज रहा है ( देखें क्या होता है)। लज्जा के कारण कुछ कह नहीं सकती और बिना कहे यों ही मेरे इस ( कठिन ) दुख को कोई जान भी कैसे सकता है ? सूचना-प्राणों के भेजने से यहाँ करुणाविरह है। किसी से कुछ नहीं कहती, मन ही मन सोचती रहती है, अतः प्रच्छन्न है। श्रीराधिकाजू को प्रकाश करुणाविरह, यथा-( कबित्त ) (३६६) हरित हरित हार हेरत हियो हरत, हारी हौ हरिननैनी हरि न कहूँ लहौं । बनमाली ब्रज पर बरषत बनमाली, बनमाली दूर दुख केसव कैसें सहौं । २-यह-नहि। ३-कै-कौ । निदान-निधान, निधान दिनाने । किये-करै।
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