२०२ रसिकप्रिया शब्दार्थ-बूझि =समझ, विचार । ज्यो-जी, प्राण । ऐंठि = मकड़कर । ऊलट पारना उलटी ( बातें) करना । भावार्थ-( सखी की उक्ति नायिका से) यदि तू स्वयम् नहीं बोलती है तो बुलाने से तो बोल | क्या मुझे यों बका-बकाकर मार डालने पर लगी है ? अच्छा, तू ही विचार कि तेरा ऐसा नायक तेरे पैरों पड़ा जिसके लिए सब युवती अपने प्राण देती हैं। हठ छोड़ दे और उठकर उन्हें गले लगा ले, तू अकड़- कर आकाश क्या देखने लगी? किसे ये दिन दूने नहीं लग रहे हैं-एक दिन दो दिनों के समान हो गया है, तू कैसी उलटी बातें करने लगी है । सूचना-युवतियों के जी देने की बात कहने से लक्षित होता है कि काम-प्रेरित प्रगति है। श्रीराधिकाजू की अति अपराध में प्रणति, यथा-( सवैया ) (३७६) केसवदास उदास भई दरसाइ दसा-दुख द्योस भरघो री। राति भए अधिरातकहू लौं बिनै बहु बंधुबधूनि करयो री। धाइ रही समुझाइ कळू न सखीनिहूँ के सिखए तें सरथो री। काहे तें मान्यौ न मानिनि तौलगि जौलगि पाइ न पीउ परयोरी।१७। शब्दार्थ-भरयो= बिताया। सरयो री=कुछ भी कार्य न सधा । भावार्थ-( रातभर सब लोग मनाते रहे पर नायिका ने मान न छोड़ा, पर जब प्रिय ने पैर पकड़े तब उसने मान छोड़ दिया। सखी नायिका से व्यंग्य कर रही है कि क्यों ऐसी क्या बात थी कि प्रिय के पैर पकड़ने पर ही तूने मान छोड़ा ) हे सखी, तू अत्यंत उदास हो गई और दुख की दशा दिखलाकर ( दुखी होकर किसी प्रकार ) तूने दिन बिताया। जब रात हुई तो आधी रात तक देवरानी जिठानियों ने अनेक विनय की, फिर भी मान न छूटा। धाय भी समझा बुझाकर थक गई, सखियों के सिखाने का भी कोई फल न हुआ । ऐ मानिनी, तब तक तूने मान क्यों नहीं छोड़ा जब तक प्रियतम पैरों नहीं पड़ा? सूचना-'प्रियतम के पैर पकड़ने पर मान जाना तथा और किसी के मनाने से न मानना' यह बतलाता हैं कि नायक ने अपराध किया था। (दोहा) (३७७) पियहि मनावै पाइ परि, प्रिया परम हित मानि । नापराध नहिं काम तें, बरनत ही रस-हानि ॥१८॥ भावार्थ -नायक के पैरों पड़ने में और नायिका के मान जाने में शुद्ध प्रेम कहीं नहीं दिखाना चाहिए। उसमें अपराध अथवा काम की प्रेरणा होनी २७-अषिरातकहू लौं-अधिरातक लौ सु । सिखए तें-सिखए न । पीउ- नाह । १८-नापराष-त्यों अपराधन, अति अपराषन, ना अपराधन ।
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