पृष्ठ:रसिकप्रिया.djvu/१९७

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दशम प्रभाव २०१ अथ प्रणति-लक्षण-( दोहा ) (३७३) अति हित तें अति काम तें, अति अपराधहिं जानि । पाइ परै प्रीतम प्रिया, ताकों प्रनति बखानि ॥१४॥ भावार्थ-अत्यंत प्रेम, अत्यंत काम-वासना अथवा अत्यंत अपराध के कारण जहाँ प्रिय प्रिया के पैरों पड़े वहाँ प्रगति से मानमोचन होता है । श्रीराधिकाजू की प्रेम तें प्रणति, यथा-( सवैया ) (३७४) तें चितयो जुन सूधे तऊ जऊ प्रेम ककै पिय पाउ गह्यो हो। मोहिं बिलोकि बिलोकि अलीन, अलोक अलोक-प्रबाह बह्योहो। बूझति हौं सखी सीस दिये तिनु और सबै हिय हेतु रह्यो हो । कान्हहि आएँ मनावन तोसों में मान किधौं अपमान कह्यो हो।१५ शब्दार्थ-सूधे = सीधे । तऊ = - तदपि, तो भी । जऊ = यद्यपि । बिलोकि =देखो। अलीन = सखियों को । अलीक-कलंक, बदनामी। बूझति हौं = मैं पूछती हूँ । सीस दिये तिनु = ( मुहावरा ) सिर पर तिनका धरकर, नम्रता- पूर्वक, अत्यंत दीनता से। भावार्थ- सखी की उक्ति नायिका प्रति ) हे सखी, विचार तो ! तूने यद्यपि सीधे नहीं देखा, फिर भी नायेक ने अत्यंत प्रेम दिखा दिखाकर तेरे पर पकड़े । और नहीं तो मेरा मुंह देख और इन सखियों को ( इनका ही मुंह) देख (और मान करना छोड़ दे)। बदनामी का कैसा झूठा प्रवाह फैला हुआ है । मैं सिर पर तिनका धरकर ( अपनी सत्यता और दीनता का प्रमाण देकर ) तुझसे पूछती हूँ। हृदय के प्रेम की बातें तो तू जाने दे ( और बातों की कोई गिनती नहीं ) पर यह तो बतला कि स्वयम् ( उलटे ) कृष्ण हो तुझे मनाने आए हैं इसमें मान माना जाए या अपमान ? श्रीराधिकाजू की अति काम तें प्रणति, यथा-(सवैया) (३७५) बोलति नाहिं बुलाएँ हुँ बोल कहा लगी मोहिं बकाएहीं मारन । सो परथो पाइनि बूझि सखी सब देति हैं ज्यौ जुवती जिहि कारन । हठु छाँ डिकै कंठ लगाइ उठाइ कहा लगी ऐंठि अकास निहारन । कौन भए नहिं द्वै दिन ए दिन तू ही लगी कछु उलट पारन ।१६। १४–अपराहि-पराध तें। १५-चितयो-चितई | जुन-नहिं । तऊ०- जऊ तऊ । प्रेम-प्रीति । जऊo-तजि प्रेम को प्रोलम । हो-हैं । बूझति- पूछति । कान्हहि-कान्ह जु । १६-बोलति०-न बोलति प्राप । बकाएहीं- बबाइये । ऐठि-बैठि, मेदि । कोने-कानों भए नट द्वे दिन ये तिन तें ही लगी कछु, कौनी भए नटि द्वैः दिन ये तिन तें ही लगी, कौनु भयो दिन द्वै पै तुही कछु लागी है। -