१६८ रसिकप्रिया सूर्य भगवान् को परम प्रिय है । शोभा को धारण करनेवाले सघर और अमृत को धारण करनेवाले मधुर अधर की समता भी इसी से दी जाती है । पर इसमें सुगंध नहीं है, अतः तेरे सर्प रूपी केशों से आच्छादित कुच रूपी मलय- गिरि को देख सुनकर इसका हृदय ( सुगंधित हो जाने की ) आशा में उलझ जाता है । अतः यह बंधुजीव का निगंध हार सुगंधित होना चाहता है, जरा इसे अपनी गर्दन में डाल तो लो। श्रलंकार-रूपक । अन्यच्च, यथा-( सवैया ) (३६८) मत्तगयंदनि साथ सदा इनि थावर जंगम जंतु बिदारयो । ता दिन तें कहि केसव बंधन बेधन के बहुधा विधि मारयो। सो अपराध सुधारन सोधि यहै इनि साधन साधु बिचारथो पाषन-पुज तिहारो हियो यह चाहत है अब हार विहारथो ।। शब्दार्थ-मत्तगयंदनि = मतवाले हाथियों के । इनि = इस ( गजमुक्ता- हार ने ) । थावर = स्थावर, अचर । जंगम = घर। जंतु = जीव । बंधन कै = बंधन में डालकर, गुहकर, पिरोकर । बेधन कै = बेधों ( छेदों) से । बहुधा = अनेक प्रकार से । बिधि = ब्रह्मा । सुधारन = शुद्धि के लिए । सोध = (शोध) परिष्कार । साधन = उपाय । साधु= ठीक, अच्छा । भावार्थ-( मानवती नायिका के पास नायक ने गजमुक्ताओं की माला भेजी है, सखी उससे कह रही है ) इसने (अर्थात् इस हार के मोतियों ने) मतवाले हाथियों ( के मस्तक ) के साथ रहकर सदा ( पहले बराबर और अचर जीवों का नाश किया। उस दोष के कारण ब्रह्मा ने इसे बिंधवा- कर और बंधवाकर ( छेद करवाकर और पिरोकर ) अनेक प्रकार के कष्ट दिए । उस दोष की शांति के लिए इसने अब यही उचित उपाय विचारा है कि तेरे हृदय में, जो पवित्रता का आगार है, यह विहार करे ( जिससे इसके पाप का नाश हो जाय-तू इस माला को गले में पहन ले )। सूचना- स्तनों की उपमा शंभु से दी जाती है, सखी का लक्ष्य 'पावन- पुंज हियो' से उसी अोर है। श्रीकृष्ण को दान उपाय, यथा-( कवित्त ) (३६६) हँसति हँसति आई आनि इक गाथा गाई, कहहु कन्हाई याको भाउ समझाइकै। पीबें क्यों अधर-मधु दंपति एक ही बार, रदन करज थल दीजहि बताइकै। -सोष.-कान यह सब साधन मंत्र बिचारे । हियो-हिये । चर
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