रसिकप्रिया, शब्दार्थ-हौं= मैं । हौं तुमहीं तुम हौं = मैं तुम हूँ और तुम मैं । अपने सहुँ अपनों से। भावार्थ-(नायक की उक्ति नायिका से ) जो किसी से सदा सुख की आशा किए रहे उसे दुख नहीं देना चाहिए। जिसे भूल से भी अपना मान लिया गया हो उस पर भी रोष नहीं करना चाहिए। मैं तुम हूँ और तुम मैं हो ( दोनों में कोई भेद नहीं है ) हे सुंदरी, मूर्तियाँ (शरीर ) दों हैं पर ( हम दोनों में ) प्राण एक ही है, जिससे जी रहे हैं। (इस प्रकार अभेद होने पर मान ठीक नहीं, क्योंकि ) मान भेद की जड़ है, इसलिए अपनों से ( जिनसे एकत्व की भावना है ) स्वप्न में भी मान नहीं करना चाहिए । सूचना |-नायक ज्ञान और व्यवहार की बातों से समझा रहा है । अतः मानमोचन का यह साम उपाय है। अलंकार-काव्यलिंग ( एकत्व की युक्ति द्वारा समर्थन करने से ) । श्रीकृष्णजू को साम उपाय, यथा- -( सर्वया ) (३६४) कहि आवति है जौ कहावत हो तुम, नाहीं तौ ताकि सके हम सौहीं। तिहिं पैंड़ें कहा चलियै कबहूँ जिहिं काँटो लगै पग पोर दुकोही । प्रोति कुम्हैड़े की जैहै जई सम, होति तुम्हें अंगुरी पसरौंहीं कीजै कछु यह जानिकै केसव हौं तुमहीं तुम तौ हरि हौंहीं । शब्दार्थ-सौंहीं = सामने । पैड़ें = मार्ग पर । दुकौंहीं = दुख देनेवाली। कुम्हैड़े की जई = कुम्हड़े की बतिया । सम = तरह, भांति । पसरोही - पसारने, दिखलाने से। भावार्थ-( नायिका की उक्ति नायक से ) हे हरि, आप कहलाते हैं. इसीलिए लोगों को कहना पड़ता है, नहीं तो किसकी मजाल है कि हम लोगों की भोर ताक भी सके । मेरे विचार से क्या कभी ऐसे मार्ग से चलना चाहिए. जिसमें एक तो पैर में कांटा गड़े और दूसरे पैरों को पीड़ा का भी दुख झेलना पड़े। लोग जब तुम्हारी ओर उँगली उठाने लगेंगे ( तुम्हारी बदनामी करने लगेंगे) तब तो प्रीति की वैसी ही दशा हो जायगी जैसी कुम्हड़े की बतिया को उँगली दिखाने से होती है ( प्रेम नष्ट हो जायगा )। इसलिए आपको समझ बुझकर कोई काम करना चाहिए । मैं श्राप ही हूँ और माप मैं ही हैं ( मुझमें और भापमें अभेद है)। सूचना-सरदार ने 'छूटि जाइ मान' का ध्यान रखकर ऊपर के दोनो छंदों के चतुर्थ चरणों के उत्तरांश को मान करनेवाले की उक्ति माना है । ५-जो-जु । दुकहीं-दुखोंही, पिरोही । जैहै-हहै, जैसे । सम-हरि ।
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