पृष्ठ:रसिकप्रिया.djvu/१७६

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अष्टम प्रभाब सूचना-यह छंद मात्रावृत्त है। मात्राएँ ३२ हैं। ऐसे मात्रावृत्त का नाम भी 'सवैया ही होता हैं। १६, १६ के विश्राम से अर्थात् दो चौपाई के चरणों के योग से यह छंद बनता है। इसे सवाई या समान सवैया कहते हैं । यह एक प्रकार का ताटंक है । श्रीराधिकाजू को प्रकाश उन्माद, यथा-( सवैया ) (३२३) केसव चौंकति सी चितवै छतिया धरकै तरकै तकि छाँहीं। बूझियै और कहै मुख और सु और की और भई पल माँहों। डीठि लगी किधौं बाय लगी मन भूलि परयो कै करयो कछु काँहीं। चूंघट की घट की पट की हरि आजु कछू सुधि राधिकै नाँहीं।४२। शब्दार्थ-तरकै = सोच-विचार करती है, चकपकाती है । ताकि-देख- कर । छांहीं = छाया । चौंकति० = चौंकती हुई तो वह देखती है। उसकी छाती धड़कती है और अपनी छाया तक को देखकर शोच-विचार में पड़ जाती है । बूझिये और पूछा जाता है और कुछ । बूझियै० = उससे पूछा कुछ जाता है और उत्तर में उसके मुख से कुछ और ही निकल पड़ता है । वियोंग के कारण पल भर में वह दूसरी की दूसरी ही हो गई। डीठि 3 नजर । बाय = वायु, बात। मन० = मन में ही कोई गड़बड़ी हो गई है। कांहीं = फिसी ने । डीठि० = उसे किसी की नजर लग गई अथवा उसे बाई ने घर दबाया अथवा उसके अंतःकरण में ही विभ्रम हो गया है अथवा किसी ने उस पर जादू-टोना कर दिया है, कुछ समझ में ही नहीं पाता कि बात क्या है । घट = घड़ा। पट% वस्त्र । श्रीकृष्ण को प्रच्छन्न उन्माद, यथा -(सवैया) (३२४) गूद अगूढ़ प्रकासत बातनि लोक अलोक की बात सरी सी । रोवत हैं कबहूँ हँसि गावत नाचत लाज की छाँडि छरी सी। काहू को सोच सँकोच न केसव देखत श्रावति देह मरी सी। बाम की बायांकि काम की बाय कि है हरि की मति काहू हरी सी ४३ शब्दार्थ-गूढ़ = अस्पष्ट । अगूढ = स्पष्ट । प्रकासत = कहते हैं । लोक की बात=इस लोक में जैसी बातें होती हैं, साधारण बातें। अलोक की बातें = जो बातें सामान्यतया लोक में नहीं होतीं। गूढकभी तो उनके मुख से गूढ़ बातें निकलती हैं और कभी अगूढ़। कभी वे संसार की सर्वसाधारण बातें करते हैं कभी उनके मुख से अलौकिक बातें निकल पड़ती हैं । सरी सी ४२-छतिया-छिति पा । ताकि-छिति । मुख-कछु। और सु-औरई। और को-औरई। मई-कहै। पल-छन । हरि०-कछु माजु सखो सुधि । ४५-अलोक को-अलौकिक । छाँटि-छांह ।