पृष्ठ:रसिकप्रिया.djvu/१७४

यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

१२ अष्टम प्रभाव १७७ , श्रीकृष्णजू को प्रच्छन्न प्रलाप, यथा सवैया ) (३१६) नील निचोल दुराइ कपोल बिलोकति ही करि श्रोलिक तोही । जानि परी हँसि बोलति भीतर भाजि गई अवलोकतं मोही। बुझिबे की जक लागी है कान्हहि केसव कै रुचि रूप-लिलोही । गोरस की सौं बबाकी सौं तोहि कि बार लगी कहि मेरी सौं को ही३८ शब्दार्थ-नीलनीला। निचोल = वस्त्र में । दुराइ-छिपाकर । ही थो । ओलिक = प्रोट, परदा । जानि परी = मुझे देखकर भाग गई पर ऐसा जान पड़ा कि भीतर हँसकर कुछ बोल रही थी। बूझिबे की = उसके बारे में जानने की । जक= धुन । रुचि इच्छा । रूप-लिलोही= सौंदर्य को लीलने- वाली, रूपलोभी। कै रुचि० = सौंदर्यदर्शी इच्छा के कारण। गोरस = दूध । सौं= शपथ । बार-द्वार । बार० = बतला दे, तुझे मेरी शपथ द्वार से लगी वह कौन खड़ी थी ? अथवा किवार =किवाड़। वचन-सखी की उक्ति नायिका या सखी से ( कृष्ण की बातों को दुहरा रही है)। श्रीकृष्णजू को प्रकाश प्रलाप, यथा-( कबित्त) (३२०) मोहन मरीचिका सो हास, घनसार को सो बास, मुख रूप की सी रेखा अवदात हैं। केसौदास बेनी तौ त्रिबेनी सी बनाइ गुही, जामें मेरे मनोरथ मुनि से अन्हात हैं। नेह उरमे से नैन देखिबे को बिरुझे से, बिझुकी सी भौंहैं उझके से उरजात हैं। लोचन कमल चारु तिन पर पाइ देति, तेरे घर आई आजु कहि कैसी बात हैं ॥३६॥ शब्दार्थ-मोहन = मोहनेवाली । मरीचिका-किरण । घनसार=3 कपूर । बास = सुगंध | रूप-सौन्दर्य । अवदात = उज्ज्वल, निर्मल, स्वच्छ । बेनी= ( सं० वेणी ) चोटी । नेह उरझे प्रेम में उलझे हुए। बिरुझे= हठ करते हुए। विझुकी = किंचित् तनी हुई । उझके० = झांकते हुए से। उ र- जात = कुच, स्तन । भावार्थ-(नायक की उक्ति सखी से ) जिस ( नायिका ) की हँसी मोहिनी किरण सी (श्वेत ) है, सुगंध कपूर सी है और मुख सौन्दर्य की निर्मल रेखा की भांति हैं, जिसने अपनी वेणी उज्ज्वल मोतो और लाल तागे ३८ -करि-किये, करे । प्रोलिक-पोलिक । कान्हहि-लालहि । लिलोही- मिलोही । ३६-कोसो-केसो। बात-बात की सी-कैसी। लोचन०-देवी सी बनाई विधि कोन को है जाई यह तेरे घर जाई माजु कहि कैसी बात है।