२ ( १७ ) जहाँ परिहास शृंगार में रहता है वहां वह संचारी का काम करता है । स्वच्छंद रूप में वह रस की स्थिति उत्पन्न करने में इसलिए समर्थ नहीं होता कि उससे साधारणीकरण होने में बाधा होती है । जिसका परिहास किया जाता है वह परिहास करनेवाले की दृष्टि में नीचा होता है। इसलिए भाव की स्थिति तो वहाँ हो सकती है, पर रस की नहीं। समरस अर्थात् शांतरस के जो उदा- हरण इन्होंने दिए हैं उनमें से अंतिम के अतिरिक्त शेष शृंगार के अंतर्गत ही हैं अर्थात् उनमें निर्वेद संचारी मात्र है, स्थायी नहीं । केशवदास ने अधिकांश विचारसरणि रसिकप्रिया में श्रृंगारतिलक के ही आधार पर रखी है । मंगलाचरण से ही अनुकथन का मंगलाचरण हो जाता है। शृंगारतिलक का मंगलाचरण यह है- शृंगारी गिरिजानने सकरुणो रस्यां प्रवीरः स्मरे बीभत्सोऽस्थिभिरुत्फणी च भयकृन्माद्भुतस्तुंगया । रौद्रो दक्षविमर्दने च हसकृन्नग्नः प्रशान्तश्चिरा- दित्थं सर्वरसाश्रयः पशुपतिर्भूयात्सतां भूतये ।। इसमें शिव ( नटराज ) को सर्वरसाश्रय कहा गया है और रसिकप्रिया में व्रजराज को नवरसमय बताया गया है- श्रीवृषभानुकुमारिहेत सृगाररूप बास हासरस हरे मातुबंधन करुनामय । केसी प्रति अति रौद्र बोर मारो बत्सासुर । भय दावानलपान, पियो बीभत्स बकीउर । अति अद्भुत बंचि बिरंचिमति, सांत संततै सोच चित । कहि केसव सेवहु रसिकजन, नवरसमय ब्रजराज नित ।। लक्षणों का आधार प्रायः वही है। उदाहरणों में कहीं उसकी छाया है और बहुधा स्वतंत्र निर्माण है। उदाहरण कहीं अनूदित नहीं हैं। जो विषय 'शृंगारतिलक' में है और 'रसिकप्रिया' में भी गृहीत है वह प्रायः विवेचन की दृष्टि से ज्यों का त्यों है । परकीया और गणिका के वर्णन में शृंगारतिलक ने अधिक रस लिया है, पर रमिकप्रिया में गणिका का पूरा परित्याग है । पर- कीया के वर्णन में भी अभिनिवेश नहीं है। नीचे दोनों ग्रंथों के समानांतर विषयों की तालिका पद्य-संख्यारूप में दी जा रही है- श्रृंगारतिलक रसिकप्रिया श्रृंगारतिलक रसिकप्रिया ०१-८ ११११-१४ ६।१२-१४ शह ११५ १४१५ ६।१० १।१० ६६ १४१६-१८ X भय । X
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