पृष्ठ:रसिकप्रिया.djvu/१६१

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3- १६४ रसिकप्रिया सूचना- -इस दोहे के प्रथम और तृतीय चरणों में १३-१३ के बदले १५-१५ मात्राएँ हैं। अथ अभिलाष-लक्षण-(दोहा) (२६१) नैन बैन मन मिलि रहे, चाहै मिलन सरीर । कहि केसव अभिलाष यह बरनत हैं मतिधीर ॥१०॥ श्रीराधिकाजू को प्रच्छन्न अभिलाष, यथा--( सवैया । (२६२) सुधि बुद्धि घटी दुति देह मिटी दिनहीं दिन चाहियै बाढ़ति सी। कछु केसव आपने पेट की पीर दुरावति है मुख काढ़ति सी। बिसरथो सुख सखी भूख निसि नींद परी चितचाहन आढ़ति सी। गिरि गो कछू गाँठि तें छूटि छबीली सुकाहें तें डोरति डाढतिसी।१२ शब्दार्थ-सुधि बुद्धि = सुधबुध, होश-हवास । घटी = कम हो गई। दुति = द्युति, कांति । मिटी - दूर हो गई । दिनहीं दिन = प्रतिदिन । चाहिये। = देह की कांति के मिटने का कोई कारण नहीं, प्रत्युत उसे और प्रतिदिन बढ़ना ही चाहिए। पेट की० = हृदय की बात तू छिपा रही है, मुख से कहने में संकोच सा कर रही है । बिसरयो = तुझे सुख भूल गया है। भूख नहीं रह गई है और रात में तुझे नींद भी नहीं पाती। परी चितचाहन० = चित्त की लालसानों को आश्रय की खोज पड़ी हुई है, वे टिकाव का स्थान चाहती हैं । गिरि गो० = क्या तेरी गाँठ से खुलकर कुछ गिर गया है ? (तेरी कोई वस्तु तो नहीं खो गई है ? ) काहे = क्यों । तै = तू । डाढ़ति सी० = आग से जलती हुई सी । तेरी चाल ऐसी जान पड़ती है मानो तेरे शरीर में आग सी लग गई हो और उससे व्यग्र होकर तू छटपटाती हुई इधर उधर फिर रही हो । श्रीराधिकाजू को प्रकाश अभिलाष, यथा-( सवैया ) (२६३) जौ कहूँ, देखें लगै दिखसाध दिखावतही दिनहीं दुख पैहौं । या ही में केसव देखियै वा तन देखिहौं देखि सखी अधिकहीं। यों उनकी दुरि देखिहौं देह ज्यों आपनी देह न देखन दैहौं । देखिबे कौं बहरावति मोहिं सु हौं ब. कहा कछु देखि ही लैहौं ।१२। शब्दार्थ-जो कहूँ = यदि कहीं । देखें लगे दिखसाध = देखने पर देखने का अभिलाष हो जाए तो । दिनहीं = दिन प्रतिदिन । या = इस । ही 3 हृदय । बहरावति = फुसलाती है । भावार्थ-(नायिका-वचन सखी प्रति ) हे सखी, तू मुझे उनके दर्शन कराने को कहती है, यदि कहीं देखने पर दर्शनाभिलाष जग पड़ा तो तेरे दिखाने -मति-कबि । ११-घटी-पटी । पीर-बात । है--पै । चाहन-चाहत, चाहति । १२-- कहूँ-कहौं, कही। वा तन--वो तन, बोल न, बोलु न । मधिकहीं-अब केहौं । दुरि--दुति । ज्यों-जो । दैहो-सैहो ।