पृष्ठ:रसिकप्रिया.djvu/१५७

यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

१६० रसिकप्रिया भावार्थ-( सखी की उक्ति सखी से ) हे सखी, इस नायिका ने भूलकर भी सीधी चितवन से श्रीकृष्ण की अोर नहीं देखा, यद्यपि वे बेचारे नम्रतापूर्वक न जाने कितनी लालसाएँ करते रहे। वे बिनती करके भी थक गए, पैरों पड़े तो पैरों पर पड़े ही रह गए । मैं तो तभी से यही विचार रही हूँ कि इसे इतना घमंड आखिर क्यों हुआ । यदि कहीं ब्रह्मा इसे लंबी लंबी लटें, पतली देह और बड़ी बड़ी आँखें न देता ( इन्हीं पर तो यह गुमान कर रही है ) तो इतना गुमान न करती। अथ अधमा-लक्षण ( दोहा) (२७६) रूठे बारहिं बार जो, तूठे बेहीं काज । ताही सों अधमा सबै, कहि बरनत कबिराज ३६ । अधमा, यथा-( सवैया ) (२७७) काटौं कपट्ट जु कान्ह सों कीजे री बाँटौं वे बोल कुबोल कसाई । फारौं जु चूंघट ओट अटै सोई डोठि फोरौ अध को जु धुंसाई । केसव ऐसी सखीन को मारौं सिखै कै करैं हित की जु हँसाई । बारहि बार को रूसबो बारौं वहाऊँ सु बुद्धि बियोग-ब साई ।४०१ बचन-सखी की उक्ति नायिका से। शब्दार्थ-काटौं : काट दू। बाँटौं= पीस डालू। बांटौं वे बोल० = उन कसाई कुबोलों की पीस डालू (बुरी बात कहना तू छोड़ दे)। फारौं = फाड़ डालू। प्रोट अटै बाधा डाले ( चेहरा न देखने दे )। फोरौं = फोड़ डालू । अध को०- जो दृष्टि नीचे ही देखती रहे ( श्रीकृष्ण की दृष्टि से मिलकर प्रेमालाप न करे )। हित = प्रेम । हित की०= प्रेम की हँसी कराए (निद्वंद्व प्रेम करने में बाधा उपस्थित करे )। बारौं =जना हूँ। बहाऊँ = बहा दूं, प्रवाहित कर दूं। बियोग-बसाई = जो वियोग में बसती हो, जो वियोग करानेवाली हो । ( दोहा ) (२७८) इहि बिधि नायक-नायिका बरनहुँ सहित बिबेक । जाति काल बय भाव ते, केसव जानि अनेक ॥४१॥ अथ अगम्या नायिका-(दोहा) (२७६) तजि तरुनी संबंध की, जानि मित्र द्विजराज । राखि लेइ दुख भूख तें, ताकी तिय तें भाज (४२। ३६–बेहीं-बैठहि, बिनही । सों-कों । सबै-बरन । कहि०-कहैं महा। ४० - फोरौं-फुरौं । हित -हित ही। रूसबो- रन-बनौं। जाति-देस । ४२-- जानि-जती।