पृष्ठ:रसिकप्रिया.djvu/१५४

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सप्तम प्रभाव शब्दार्थ--चारु = सुंदर । अंबर = वस्त्र । के उर=के बीच, भीतर वस्त्रों के नीचे । सुमन = पुष्प । वारौं -न्यौछावर करूँ। कोरि= कोटि, करोड़ों । बानी जगबंद =संसारपूज्या सरस्वती । दीनी दुःखी । अरबिंद%D कमल । ब्रजचंद = श्रीकृष्ण । ज्यों-जैसे, तरह। भावार्थ--( सखी की उक्ति नायक प्रति ) शरीर में चंदन लगाए, सुंदर ( श्वेत ) वस्त्र पहने, उन वस्त्रों के नीचे मोतियों के हार गले में डाले, (श्वेत ) पुष्पों की माला वक्षःस्थल पर धारण किए वह आनंद की जड़ सी शोभित होती है । ( उसकी सुंदरता पर ) करोड़ों रति न्यौछावर करती हूँ। हे नाथ, वह वीणा में आपका गुणगान करती है । उसके साथ मृगछौने तो हैं ही, हंस भी जा रहे हैं, जिससे जगवंद्य शारदा सी जान पड़ती है। जिसे देख कर (सौतों की) दूतियाँ चकित होकर चकई की भाँति भाँग चलीं और सौतें कमलिनी की भांति मुरझाकर दुःखित हुई अर्थात् कोई उसके सौंदर्य के सामने ठहर न सकी ( चंद्रमा को देखकर चकई एवम् कमल मंद हो जाते हैं ) । अंधकार रूपी वियोग जाता रहा । नेत्र रूपी चकोर प्रफुल्ल हुए । हे ब्रजचंद, वह चंद्रावली की भाँति चलकर चंद्र (आप ) के पास पाई है। अलंकार--उपमा से पुष्ट रूपक । सूचना--यहाँ 'दूती चौकि चलीं', 'सौतें दीनी भई' और 'वारौं कोरि रति' पदों से नायिका के सौंदर्य की पराकाष्ठा सूचित होती है । वह वीणा बजाकर प्रतिपक्षियों को चुनौती देती है, जिससे उसका गर्व प्रकट होता है । अतः गर्वाभिसारिका है। प्रच्छन्न कामाभिसारिका, यथा--( कवित्त) (२६८) उरमत उरग चपत चरननि फन, देखत बिबिध निसिचर दिसि चारि के। गनति न लागत मुसलधार सुनत न, झिल्लीगन-घोष निरघोष जल-धारि के। जानति न भूषन गिरत, पट फाटत न, कंटक अटकि उर उरज उजारि के। प्रेतनि की पूछ नारि कौन पैसे सीख्यो यह, जोग कैंसो सारु अभिसार अभिसारिके ॥३१॥ शब्दार्थ--उरग =सर्प । फन = फण, सिर । दिसि० = चारो दिशाओं के । घोप= शब्द, ध्वनि । निरघोष = घोर ध्वनि । धारि = धारा। भूषन = ३१--घरननि ०-फन घरननि, चरननि फनि । सुनत न-बरषत । गिरत- गिरना