पृष्ठ:रसिकप्रिया.djvu/१५

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( १५ ) ने। कहीं कहीं यह भेद मिलता है, जैसे भाषाभूषण में । इनमें से प्रोस्यत्पतिका का उदाहरण प्राचीनों के अनुसार भानुदत्त ने भी रसमंजरी में रखा है । उन्होंने बतलाया है कि इसका अंतर्भाव यदि विप्र- लब्धा, कलहांतरिता या खंडिता में करना चाहें तो नहीं हो सकता। इसलिए इसे स्वतंत्र भेद ही स्वीकार करना चाहिए । दास विचारशील प्राचार्य थे। उन्होंने नायिकाभेद के प्रसंग में कुछ स्थितियां कल्पित की हैं। रससारांश में वे लिखते हैं- गुप्त बिदग्धा लक्षिता मुदिता तिय को भाइ । किये बने सुकियाहु में प्रपा हास्यरस पाइ । त्यों ही परकीयाहु में है मुग्धादिक कर्म । जैसें अस्त्र कोऊ गहै क्षत्रिजाति को धर्म ।। उस युग में इतना ही विचार क्या कम है । आज जब नायिकाभेद में ही अपनी सारी साहित्यिक योग्यता का व्यय करनेवाले भी इस विषय पर कुछ नहीं सोच पाते तो संस्कृत की समृद्ध चिंतनपरंपरा में हिंदी के मध्यकाल के इन शृंगारयुगीन कवियों या प्राचार्यों ने इतना भी सोचा तो बहुत किया । शृंगार-काल के प्राचार्यों ने महत्त्वपूर्ण बातें चाहे न सोची हों, पर उन्होंने अपने क्षेत्र में समय समय पर कुछ चिंतन अवश्य किया है। उनके चिंतन के कणों को संचित करने से पर्याप्त राशि इकट्ठी हो सकती है । रसिकप्रिया और श्रृंगारतिलक रसिकप्रिया लक्षणग्रंथों में केशव की सबसे प्रथम कृति है । इसका निर्माण सं० १६४८ में हुआ था । ओड़छा के इंद्रजीत के कहने से इस ग्रंथ का निर्माण किया गया- रची बिरंचि बिचारि तह नृपमनि मधुकर साहि । गहिरवार कासीसरबि कुलमंडन जसु जाहि ।। ताको पुत्र प्रसिद्ध महिमंडन दूलहराम । इंद्रजीत ताको अनुज सकल धर्म को धाम ।। दोन्ही ताहि नृसिंहजू तन मन रन जयसिद्धि । हित करि लच्छन-राम ज्यौ भई राज की वृद्धि ॥ • प्राचीनलेखनादग्रिमक्षरणे देशान्तरनिश्चितगमने प्रेयसि प्रोस्यत्पतिका नवमी नायिका भवितुर्महति ।