पृष्ठ:रसिकप्रिया.djvu/१४४

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१४६ रसिकप्रिया , अथ स्वाधीनपतिका-लक्षण-(दोहा ) (२४१) केसव जाके गुन बँध्यो, सदा रहै पति संग। स्वाधिनपतिका तासु कों, बरनत प्रेम-प्रसंग ।।। प्रच्छन्न स्वाधीनपतिका, यथा-(सवैया ) (२४२) केसव जीवन जो ब्रज को पुनि जोवहु तें अति बापहि भावै: जापर देव-अदेव-कुमारिनि वारत माइ न बार लगावै। ता हरि पै तूं गँवार की बेटो महावर पाइ झवाँइ दिवावै । हौं तौ बची अब हाँ सिनहीं ऐसें और जौ देखै तौ ऊतक आवै ।। शब्दार्थ-जीवन = प्राण । भाव = अच्छे लगते हैं। माइ= माता । प्रदेव = मनुष्य । वारत = न्यौछावर करने में। बार-विलंब । झवाँइ = भावें से पैर रगड़वाकर । दिवाव दिलवाती है। हाँसी- उपहास, अप्रतिष्ठा। ऊतरु प्रादः = उसे क्या उत्तर दोगी अर्थात् कोई नहीं। भावार्थ-( सखी की उक्ति नायिका प्रति ) हे सखी, जो व्रजवासियों के प्राण हैं और जिन्हें पिता भी प्राणों से अधिक प्यारा समझते हैं, जिन पर उनकी माता देव तथा नर-कुमारियों को न्योछावर कर देने में देर नहीं लगातीं, ऐसे कृष्ण से भी तू ग्रामवासी की छोकरी (राधिका) होकर पैरों में झावें से रगड़वाकर महावर लगवाती है । मैं तो केवल हँसकर ही टाल गई। यदि कोई दूसरा देखेगा तो क्या तुझसे उत्तर बन पाएगा? ( अर्थात् नहीं ) । प्रकाश स्वाधीनपतिका, यथा-( कबित्त ) (२४३) चोली को सो पान तोहि करत सँवारिबोई, मुकुर ज्यों तोही बीच मूरति समानी है। तोही तियदेवता पै पायो पति केसौदास, पतनी बहुत पतिदेवता बखानी है। तेरे मनोरथ भागीरथ-रथ पाछै पाछ, डोलत गुपाल मेरे गंग को सो पानी है। ऐसी बात कौन जो न मानी सुनि मेरी रानी, उनके तौ तेरी बानी बेद की सी पानी है।६। ४-तास कों-तास कहें, तास कहि । ५-पुनि-मरु । बापहि-तातहि । कुमारिनि-कुमार नि । बार- बारनि लावै । गंवार-महोर । महावर०-२ -झमाइक पांइ महावर डावै । हाँ तो०-हौती रही बचि, मैं तो चलो अब । ऐसे-प्रस, सखि । तौ-सो।६-को सो-के सो। बीच-माह । तियदेवता-पतिदेवता । केसौदास- केसौराह । तेरे०-मनोरथ रथ भगीरथ रथ पीछे । डोलत०-डोले नंदलाल ।