पृष्ठ:रसिकप्रिया.djvu/१३८

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१४० रसिकप्रिया 9 सुनि को प्रतिउत्तर देइ सखी हग आँसुन की अवली उमही । उर लाइ लई अकुलाइ तऊ अधिरातक लौं हिलकी न रही ४४| शब्दार्थ -जा कह = जिसको । तात = पिता । रस = प्रेम । अधिरातक लौं आधी रात तक । हिलकी = सिसक । भावार्थ-(सखी की उक्ति सखी से) एक बार श्रीकृष्ण ने एक गोपिका से हँसी की, यह बात कही कि 'जिसे स्वयम् पिता ने छोड़ दिया उससे मेरा प्रेम-व्यापार क्या रह सकता है ? (कभी नहीं)' । इसका प्रत्युत्तर भला कौन देता, उस गोपिका के नेत्रों से आँसुओं की धारा उमड़ चली। तब श्रीकृष्ण ने अकुलाकर उसे हृदय से लगा लिया। फिर भी आधी रात तक उसकी सिसकी रुक न सकी। अलंकार-विशेषोक्ति । सूचना-'तात दई तजि ताहि' का अर्थ 'सरदार' ने यह भी लगाया है कि पिता ने जिसे तुझे दे रखा है पहले उसे तू त्याग । अथ विच्छित्ति हाव-लक्षण-(दोहा) (२२५) भूषन भुषिबे को जहाँ, होहि अनादर आनि । तहाँ बिछित्ति बिचारिये, केसवदास बखानि ।४५ शब्दार्थ-भूषन = गहना । भुषिबे०-जहाँ गहने पहनने का अनादर हो अर्थात् बिना सजे-सिँगारे ही शोभा हो । श्रीराधिकाजू को विच्छित्ति हाव, यथा--(सवैया ) (२२६) तन आपने भाए सिँगार सिँगारत हैं ये सिँगार सिँगारै वृथाहीं। ब्रजभूषन नैननि भूख है जाकी सु तो पैसिँगार उतारे न जाही। सब होत सुगंधनिहीं तें सुगंध सुगंध तें जाति सुगंध सुभाहीं। सखि तोहि तें हैं सब भूषन भूषित भूषन तें तुम भूषित नाहीं ।४६। शब्दार्थ -भाए = ( नायक को ) भानेवाले। सुभाही स्वभाव से ही, स्वाभाविक । भावार्थ-( सखी की उक्ति नायिका प्रति ) हे सखी, अपने को रुचने- वाले शृंगार ही सब सिँगारते हैं, तूने ये शृगार व्यर्थ ही किए । व्रजभूषण के नेत्रों में जिस शृगार के देखने की भूख (इच्छा) है वे शृंगार क्या कभी (चढ़ाए) ४४.-जा-या । ताहि जाहि । रस-रति । सुनि-४ । ४५-तहां-तह बिच्छित्ति, सो बिच्छित्ति । बखानि-सुजान । ४६-सिंगार०-सिंगार नहीं ये सिंगार | सिंगारत०-सिंगारति और, सिंगारत होइ सुगंध । भूख है•-मूषित मेनन । उतारे-उतारि, सिँगारे। सव-सचु । तें-मैं। जाति-जातें । सुभाहीं- बृयाहीं । तोहि तेल-भूषन तो सब तोहि तें। तुम-तुव ।