षष्ठ प्रभाव १३५ शब्दार्थ-समय बिषे = समय पर भी। तासों = ताकों, उसको। अथ श्रीराधिकाजू को विहृत हाव, यथा-(सबैया ) (२१४। मेरे कहे दहिये जु तऊ फिरि ग्रीषम ज्यों हठ-काठ दहोगी। पैरिबो प्रेम-समुद्र पराए कराए करें कृत क्यों निबहोगी। हौंस मरै सजनी सिगरी कबहूँ हरि सों हँसि बात कहोगी। पो-चित की चितसारी चढ़ी चित की पुतरी भई कौ लौ रहोगी।३४ शब्दार्थ-दहिये: जलती हो, दुख पाती हो । ग्रीषम = ग्रीष्म, अग्नि । हठ-काठ= हठ रूपी लकड़ी। पराए कराए = दूसरे द्वारा (तैरने को प्रेरित किए जाने पर ) । करें कृत = कार्य करने पर अर्थात् तैरने पर। दूसरे द्वारा तैरने को प्रेरित किए जाने पर और दूसरे के तैरने से तुम्हारी तैरने की क्रिया कैसे होगी । तुम्हें स्वयम् तैरना होगा। हौंस = उत्कंठा, लालसा । पी-प्रिय, नायक । चित्रसारी%चित्रशाला, शयनगृह । चित=चित्र । पुतरी-पुतली को लौं-कब तक। भावार्थ-( सखी की उक्ति नायिका से ) हे सखी, मेरे कहने से यदि ( इस समय ) जल रही हो ( हठ नहीं छोड़ रही हो ) तो भी मुझे विश्वास है कि ऐसा समय आएगा जब ( भीतरी) प्राग से तुम अपने हठ रूपी काठ को स्वयम् जला डालोगी, अर्थात् जब प्रेम की तीव्र प्रेरणा होगी तो हठ न रह जाएगा। तुम्हें प्रेमसमुद्र में तैरना है, क्या किसी के पार कराने से या उसके ही पार करने से वहाँ तुम्हारा निबाह हो जायगा ? (यह समुद्र तुम्हें स्वयम् पार करना होगा, दूसरों के भरोसे मत रहो )। ( उधर ) सारी सखियां इस लालसा में मरी जा रही हैं कि कभी न कभी श्रीकृष्ण से तुम हँसकर बोलोगी ( इधर तुम्हारा राग कुछ समझ में नहीं आ रहा है)। माखिर, मैं यह पूछती हूँ कि प्रिय के हृदय की चित्रशाला में चित्र में खचित पुतली के समान कब तक (जड़) बनी रहोगी। अलंकार-रूपक श्रीकृष्ण को विहृत हाव यथा--(मवया ) (२१५) केसवदास सों प्राजु सखी बृषभानुकुमारी उराहनो दीनो। गारि दई अरु मारि दई अरबिंदन सों मनु कै हितहीनो। सीख दई, सुख पाइ लई उर लाइ सुगंध चढाइ नवीनो। उत्तरु देइ कौं नंदकुमार कछू सिर नीचे तें ऊँचो न कीनो ॥३॥ शब्दार्थ-उराहनो --उलाहना, उपालंभ। मारि० = कमलों से मार दी ( मारा)। मनु कै० = मन में लगाव कम करके, मन में प्रेम की कमी करके (अर्थात् रोष से )। ३४-फिरि-तन । पैरिबों-पौरिबो । करें कृत-किये उत, किये कित । चढ़ी चित-चढ़ी चित्र । ३५-केसवास-केसवराइ । मनु-करि । 2
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