१३२ रसिकप्रिया श्रीकृष्णजू को ललित हाव, यथा-( सवैया ) (२०६) चपला पट मोर किरीट लसै मघवा-धनु-सोभ बढ़ावत हैं। मृदु गावत धावत बेनु बजावत मित्र-मयूर नचावत हैं। उठि देखि भटू भरि लोचन चातक-चित्त को ताप बुझावत हैं । घनस्याम घनाघन बेष घरे जु बने बन तें ब्रज आवत हैं ।२६। शब्दार्थ --पट = वस्त्र, पीतांबर । किरीट = मुकुठ । मघवा-धनु = इंद्र- धनुष । मित्र-मयूर नचावत हैं = मित्र रूपी मयूरों को नचाते हैं। भटू = हे सखी । चातक पपीहा । घनस्याम = श्रीकृष्ण । घनाधन = बरसनेवाला बादल । भावार्थ-(सखी की उक्ति नायिका से ) पीतांबर ही बिजली है। सिर पर के मोरमुकुट से इंद्रधनुष की सी शोभा बढ़ा रहे हैं । धीरे धीरे गाते और वेणु बजाते आ रहे हैं (यही मेघ की मंद ध्वनि है ) जिससे अपने मित्र मयूरों को नचा देते हैं। हे सखी, उठकर नेत्रभर देख, वे चातक के चित्त का ताप दूर कर रहे हैं । घनश्याम श्रीकृष्ण प्राज बरसनेवाले बादल का वेश धारण किए वन से बने ठने व्रज की मोर पा रहे हैं। अलंकार-सांग रूपक । अथ मद हाव-लक्षण-( दोहा ) (२०७) पूरन प्रेम-प्रभाव तें, गर्व बढ़े बहु भाव । तिनके तरुन बिकार तें, उपजत है मद हाव ।२७। भावार्थ--पूर्ण प्रेम के प्रभाव से अनेक प्रकार के गर्व का बढ़ना और उनके ( नायक नायिका के ) यौवन-विकार के मद का उदय ही मद हाव हैं । श्रीराधिकाजू को मद हाव, यथा-(कबित्त) (२०८) छबि सों छबीली वृषभानु की कुँवरि भाजु, रही हुती रूपमद मानमद छकिकै । मारहू तें सुकुमार नंद के कुमार ताहि, आए री मनावन सयान सब तकिकै। हँसि हँसि सौंहैं करि करि पायँ परि परि, केंसौराय की सौं जब हारे जिय जकिकै । ताही समै उठे घन घोरि घोरि दामिनी सी, लागी लौटि स्याम घन उर सों लपकिकै ।२८ २६-घनाघन-घने घन । धरे-घने । २७-प्रभाष-प्रताप । २९-छबि- छल । हुती-द्युति । प्राए-पापु । मनावन-मनावत । तकि-बकि । पार्य-पाय परि कर जोरि । केसोराय-केसौदास । हारे-रहे । धन-घन घोर दामिनी सी पाइ, प्राइ उर लागी स्याम धन सों लपक के, स्याम घन तकि के०, स्याम घन घन सों लपकिक ।
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