( १३ ) ३ उद्भिन्नप्रागल्भ्या ४ किंचिद्धृतसुरतचातुर्या ५ प्रगल्भवचना ईषत्प्रगल्भवचना किंचिद्विचित्रसुरता विचित्रसुरता X मध्यमव्रीडिता X X X x X प्रौढ़ा- १ लब्धायति लब्धायति गाढतारुण्या रतिप्रीता २ रतिकर्मपंडिता समस्तरतिकोविदा समस्त रतकोविदा आनंदसंमोहा ३ आक्रांतनायक मना आक्रांतनायका आक्रांत X ४ नियूँढविलासविस्तारा विराजद्विभ्रमा भावोन्नता ५ X X स्मरांधा ६ x दरव्रीडा X इन विशेषरणों में यौवन, काम, लज्जा, रति प्रगल्भता और अधिकार के तारतम्य का विचार किया गया है । 'लब्धायति' विशेषण को न समझने के कारण हिंदी में प्राचार्य मन्य और पालोचकंमन्य इसे 'लब्धापति' या 'लुब्धापति समझते हैं। संस्कृत-व्याकरण से न 'लब्धापति' बनेगा न 'लुब्धापति' । तत्त्वतः शब्द लब्धायति है-'लब्धा प्रायतिर्यया सा लब्धायतिः' । 'प्रायति' शब्द के अनेक अर्थ हैं-भविष्य, विस्तार आदि। 'साहित्यदर्पण' की 'गाढतारुण्या' कदाचित् 'लब्धायति' है। 'भावोन्नता' विराजद्विभ्रमा ही है काव्यालंकार, श्रृंगारतिलक और साहित्यदर्पण एक ही परंपरा में हैं। रसमंजरी का प्रवाह भिन्न है। हिंदी में नायिकाभेद के क्षेत्र में कोई नई उद्भावना नहीं की गई है। जो उद्भावना नई समझी जाती है वह पहले कोई उद्भावना भी हो। हिंदी के दो प्राचार्यों में कुछ नवीन कहने का हौसला दिखाई देता है-देव में और दास में । देव की जैसी उद्भावना जातिविलास में दिखाई देती है वह साहित्यिक मर्यादा के अंतर्गत नहीं पाती। यथार्थवाद के नाम पर कहाँ तक उसकी पुष्टि की जायगी। दास ने जो भी नूतन सरणि रखी है वह विमर्शपूर्वक है, भले ही उसका विशेष महत्त्व न हो। हिंदी में विशेष महत्त्व की. उद्भावना के लिए अवकाश भी संस्कृत के प्राचार्य नहीं छोड़ गए थे। इसलिए यदि किसी की दृष्टि नवीन विचारपरंपग की ओर जाती है तो यही उसके लिए बहुत बड़ी बात है । जैसे, दास ने यह सोचा कि श्रीमानों के यहाँ अनेक महिलाएं रहती हैं और वे एक ही पति की अनेक महिलाएँ होती हैं । पारिणगृहीता तो स्वकीया है, पर ये 'रक्षिताएँ' या 'परदायतें' क्या मानी जाएँ-परकीया या स्वकीया । इनके परकीया मानने में बाधा थी। उसके लिए 'परपुरुष' की शर्त थी।
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