पृष्ठ:रसिकप्रिया.djvu/१२७

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६ षष्ठ प्रभाव १२६ 3 'प्राधि' मानसिक कष्ट अलग कोई व्यभिचारी नहीं, उसे व्याधि के साथ ही समझना चाहिए या संगति बैठाने के लिए उसे ('जुत प्राधि' को ) 'अवहित्थ' का विशेषण मान लेना चाहिए । अथ हाव-लक्षण-(दोहा ) (१६५) प्रेम राधिका कृस्न को, है तातें सिंगार । ताके भावप्रभाव तें, उपजत हावबिचार ॥१५॥ शब्दार्थ- -~भाव =स्थिति ! ताके०= उस शृंगार की स्थिति के कारण । विचार-प्रर्थात् बात, रूप । (१९६) हेला लीला ललित मद, बिभ्रम बिहत बिलास । किलकिंचित बिच्छित्ति अरु, कहि बिब्बोक प्रकास ।१६। (१६७) मोट्टाइत सुनि कुट्टमित, बोधकादि बहु हाव । अपने अपने बुद्धिवल, बरनत कबि कबिराव ।१७/ अथ हेला हाव-लक्षण-(दोहा ) (१८) पूरन प्रेम-प्रताप तें, भूलत लाज-समाज । सो हेला तिहिं हरत हिय, राधा श्रीप्रजराज ।१८) भावार्थ-प्रत्यंत प्रेम होने के कारण जहाँ लज्जा न रह जाय । जिसके कारण देखनेवाले का हृदय वशीभूत हो जाए वही हेमा है । अथ श्रीराधिकाजू को हेला हाव-यथा-( सवैया) (१९६) अवलोकनि अंकुस ऐंचि अनूपम भ्रू-जुगपास भलें गल मेली। मृदुहास सुबास उठाइ मिली वह जोन्ह की जामिनी माँझ अकेली। अधरासव प्याइ किये घस केसवरांय करी रसरीति नवेली । धन में बृषभानुसुता सुखहीं हरि को हरि लै गई हेलही हेली ।१६। शब्दार्थ-ऐचि =खींचकर । पास = (पाश) फंदा। सुबास= सुगंध । जोन्ह की जामिनी= चाँदनी रात । अधरासव = अधरों का पासव (शराब)। सुखहीं = सरलता के साथ । हरि को हरि= कृष्ण को हरण करके । हेलहीं = खेल ही खेल में । हेली हे अली, हे सखी। भावार्थ-( सखी की उक्ति सखी से ) चांदनी रात में अकेली उस वृषभानु की पुत्री राधिका ने श्रीकृष्ण को चितवन रूपी अंकुश से खींच लिया। अद्वितीय दो भौंह रूपी पाश भली भांति उनके गले में डाल दिए भौर मृदु हास तथा सुगंध ( रूपी सहचरों) द्वारा उन्हें उठवा मँगाया और फिर अधरों का आसव पिलाकर (बेहोश हो जाने पर ) अपने वश में कर लिया। इस १६-बिहृत-विहित । बिच्छित्ति-विक्षिप्त । १७-बोधकादि-बोधादिक । अपने-अपनी अपनी। १८-तिहि-जिहिं । १६-वह-बहु । प्रधरा- प्रषरारस । रस-रति ।