पृष्ठ:रसिकप्रिया.djvu/११६

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, पुन्य 3 ११८ रसिकप्रिया कान्ह.तिहारियै प्रान किये कहौं लाज सों नीको है नातोई टूटयो। छाँड्यो सबै हम हेरि तुम्हें तुम पै तनको कपटौ नहिं छूटयो २१॥ शब्दार्थ-जाति भई = नष्ट हो गई । खुटयो = = कम हो गया पुन्य का घड़ा । पान = शपथ । नीके है = भली भाँति । हेरि = देखकर । भावार्थ-(नायिका की उक्ति ) मेरी कीर्ति ( आपके प्रेम के कारण) गई (नष्ट हो गई) और अपने साथ ही मेरी जाति भी लेती गई (जात-बिरा- दरी से भी पृथक् कर दी गई, अपकीति हुई सो तो हुई ही) । कुल (कुटुंब) से प्रेम कम हो गया, क्षीण हो गया । गुण, सौंदर्य और यौवन का भी गर्व चला गया ( मैंने इनका तो गर्व भी नहीं किया )। क्षणक्षण पुण्य का घड़ा भी फूटता ही गया अर्थात् नहीं रहा । हे कान्ह, आपकी शपथ करके कहती हूँ कि लज्जा से तो बना बनाया नाता ही टूट गया ( मैंने लज्जा भी छोड़ी)। क्या कहूँ, तुम्हें देखकर ( तुम पर मुग्ध होकर ) मैंने तो सब कुछ छोड़ दिया, पर तुमसे कुछ भी छोड़ा नहीं गया, यहाँ तक कि थोड़ा सा भी कपट तुमने नहीं छोड़ा ( आप अब भी अन्य स्त्रियों के यहां जाते हैं और मुझसे कपट करके )। ( दोहा ) (१६१) अधिक अनूढा लाज तें, पिय पै जाइ न श्राप । क्योंहूँ करि सखियै कहै, ताके उर की ताप ।२२। शब्दार्थ -आप = स्वयम् । क्योंहूँ करि= किसी प्रकार । सखियै = सखी ही। ताप=गरमी, संताप । -( सवैया ) (१६२) जाने को केसव कौने कह्यो कब कान्ह हमारे हिंडोरनि मूलै । पान न खाइ, न पान्यो पियै तब तें भरि लोचन लेत समुलै । जाहु नहीं चलि बेगि बलाइ ल्यौं लेहु सकेलि कहा यह भूलै । जानत हो वह काम-कली फुभिलाई गएँ बहुरथौ फिरि फूलै?।२३। भावार्थ-( सखी-वचन नायक से ) हे कान्ह, न जाने कब किसने उससे कह दिया है कि कान्ह हमारे झूले पर झूलते हैं। ( तभी से ) न वह पान खाती है न पानी पीती है । वह लोचनों को समूल ( जड़ से, भली भांति आँसू से ) भर लेती है। मैं आपकी बला लेती हूँ आप शीघ्र ही उसके पास चले क्यों नहीं जाते ? उसके निकट जाने में देर करना आपकी भूल है, ऐसा करके २१-सों-मों | खूटयो-पूटयो, छुटयो । गुन-पुनि । पुन्य०-सो तो सबै । फुटघो-खूटयो। निहारिय-तिहारि ही । कही--कहैं। नीको-नीके, नीक । ह्व-हो । २२-क्यों हूँ-कहूँ करि। उर-तन । २३-पान्यो-पानी। लोचन:- प्रसियो लेति । लेउ-लेहो । यथा-