१०४ रसिकप्रिया इसकी शोभा देखकर प्रणाम करती हैं। पातालवासियों की स्त्रियां अथवा मूर्तिमती विद्युत् अथवा कामदेव की ही कामिनी रति भी क्या ऐसी सुंदर है ? ( नहीं )। यह चित्ररूप में ही चित्त चुराए ले रही है। यह तो रामपत्नी सीता और लक्ष्मी सी सुंदर है। अलंकार-प्रतीप और उपमा ( चतुर्थ चरण में )। अथं स्वप्नदर्शन-लक्षण---- ( दोहा ) (१३२) केसव दरसन स्वप्न को, सदा दुरयोई होय । कबहू प्रगट न जानिये, यह जानै सब कोय ।१२। शब्दार्थ-दुरयोईछिपा हुअा अर्थात् केवल प्रच्छन्न । श्रीराधिका जू को पच्छन्न स्वप्न दर्शन, यथा-( सवैया ) (१३३)आतुर कै उठि दौरी अली, जन आतुर ज्यों गहिये सु गही त्यों । हो मेरो रानी कहा भयो तो कहुँ बूझति केसव बूझियै री ज्यों । डीठि लगी, किधौं प्रेत लग्यो कि लग्यो उर प्रीतम जाहि डरो यों। आनन सीकर सी कहिय धक सोवत तें अकुलाइ उठी क्यों ।१३। शब्दार्थ-बूझत = पूछते हैं । डीठि = नजर । सीकर = पसीने की बूंदें । 'धक = एकाएक। भावार्थ-( अंतरंग-सखी-वचन नायिका प्रति ) हे सखी. उतावलों की तरह तू उठकर दौड़ी है और जैसे उतावला जन किसी को पकड़ता है उस प्रकार तूने मुझे पकड़ रखा है। ऐ मेरी रानी, तुमको क्या हो गया है ? मैं तुझसे वैसे ही पूछ रही हूँ जैसे (इस अवसर पर) पूछा जाता है । तुझे नजर लग गई है या भूत-प्रेत लग गया है या प्रियतम ने हृदय से लगाया जिससे तू इस प्रकार डर गई है । तेरे मुख पर पसीने की बूंदें छाई हैं, तू सी सी कर रही है । एकाएक सोते से व्याकुल होकर आखिर क्यों उठ पड़ी ? श्रीकृष्णजू को प्रच्छन्न स्वप्नदर्शन, यथा-( कवित्त ) (१३४) नख-पद-पदवी को पावै पदु एको बिसौ उरबसी सर में न आनिबी । लोम सी पुलोमजा न तिल सी तिलोत्तमा न, मैलहू समान मन मेमका न मानिबी। जानिये न कौन जाति अब ही जगाएँ जाति, जीवन तौ जानिहौं जौ ताहि पहिचानिबी। १२-जानिये-देखियै । जाने-जानत । १३-ह-ज्यों । जन-जनि । हो-है । बूझति बूझत । बूझिय-बूझि रही त्यौँ । द्रौपदी न,
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