चतुर्थ प्रभाव १०१ सूचना--मुद्रित प्रति में यह दोहा भी है- प्रकट काम को कल्पतरु, कहि न सकति मति मूढ़ । चित्रहु में हरि-मित्र की, अति अद्भुत गति गूढ़ ।। श्रीराधिकाजू को प्रच्छन्न चित्रदर्शन, यथा-( सवैया ) (१२८) लोचन ऐंचि लिये इत को मन की गति जद्यपि नेहनही है। आनन आइ गए श्रम-सीकर रोम. उठे तन कंप लही है। तासों कहा कहियै कहि केसव लाज-समुद्र में बूड़ि रही है। चित्रहु में हरि-मित्रहि देखत यौँ सकुची जनु बाँह गही है ।। शब्दार्थ---नही-नधी, जुड़ी, युक्त । श्रम-सीकर = पसीने की बूदें। भावार्थ-( सखी की उक्ति सखी से ) यद्यपि नायिका ने चित्र पर से अपनी दृष्टि इधर की ओर खींच ली है तथापि मन की गति अब भी स्नेहयुक्त है। क्योंकि उसके मुख पर पसीने की बूंदें आ गई हैं। रोएँ खड़े हो गए हैं और शरीर ने कंप ग्रहण कर लिया है। उससे कहा भी जाय तो क्या कहा जाय जो स्वयम् लज्जा के समुद्र में डूब रहा हो। चित्र में भी अपने प्रिय श्रीकृष्ण को देखकर वह इस प्रकार सकुच गई है मानो उन्होंने प्रत्यक्ष ही उशकी बांह पकड़ ली हो। अलंकार-द्वितीय विभावना । सूचना- इसके बाद यह सवैया भी मुद्रित प्रति में है, जिसे सरदार ने केशव का नहीं माना है- ते जनु मोहन को चितयो कछ ऐसें कही जनु मोलों कही है। लाज तजै नहिं खेलत ही मन की गति गूढ कहाँ ौं लही है। केसव चित्रित मंदिर आजु दिखावत ही मति झि रही है। चित्रहु में हरि-मित्रहि देखत यों सकुची जनु बाँह गही है। (१२६) श्रीराधिकाजू को प्रकाश चित्र दर्शन, यथा-( कवित्त ) केसौदास नेहदसा दीपक सजोय कैसे, ज्योति ही के ध्यान तम-तेजहि नसायहै। आँखिन सों बाँधे अन्न काहू की बुझानी भूख, पानी की कहानी रानी प्यास क्यों बुझायहै । ए री मेरी इंदुमुखी इंदीवर-ननी लखें, इंदिरा के मंदिर में संपति सिधायहै। ऐसे दिन ऐस ही गंवाति गँवारि कहा, चित्र देखें मित्र के मिले को सुख पायहै ।। -गति-मति । तन-उर, अति, उठि। कंप०-कंप गही, कंपत हो।- सँजोय-संजोग । तम-तप । अन्न-अन्य । बुझानी-न मागी । रानी-प्यास कैसे के । इंदीवर ०-इंदोबरनैन । में--क्यों । सिधायहै-समाइ है । देखें--बिना। -
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