पृष्ठ:रसज्ञ रञ्जन.djvu/९८

यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
९८
रसज्ञ-रञ्जन
 

महा अलौकिक है। इससे जान पड़ता है कि आप कोई :दिव्य पुरुष, अर्थात् देवता, हैं। मन्मथ आप नहीं हो सकते, क्योकि वह मूर्ति हीन है। अश्विनीकुमार भी आप नहीं हो सकते, क्योंकि वे कभी अद्वितीय नहीं देखे गए। यदि आप मनुष्य हैं तो यह पृथ्वी कृतार्थ है। यदि आप देवता है तो देवलोक की प्रशंसा नहीं हो सकती। यदि आपने अपने जन्म से नाग-वंश को अलंकृत किया है तो नीचे, अथात् पाताल मे, होने पर वह सब लोको के ऊपर समझा जाने योग्य है। इस भूमएल में किम मनुष्य ने इतना अधिक पुष्य सम्पादन किया है जिसे कृतकृत्य करने के उद्देश्य से श्राप अपने पैगे को चलने का कष्ट दे रहे हैं? इस प्रकार के न माजूम कितने सन्देह मरे चित्त में उत्पन्न हो रहे हैं। अतएव आप अधिक देर तक मुझे सन्देह-सागर मे न डुबोइये। बतला दीजिए कि किस धन्य के श्राप अतिथि हैं। आपके सुन्दर रूप का दर्शन करके मेरी रष्टि ने तो अपने जन्म का फल पा लिया। यदि आप अपने मुख से अब कुछ कहने की कृपा करे तो मेरे कानों को भी सुधासार के आस्वादन का आनन्द मिल जाय।”

अपनी प्रियतमा के मुख से इस तरह शहद के समान मीठी वाणी सुनने से नल का अजीव हाल हुआ। दमयन्ती के ओष्ठ- बन्धूकरूपी धन्वा से, वाणी के बहाने निकली हुई मन्मथ की पञ्चवाणी (आंच वाण ) कानों की राह से नल के हृदय के भीतर धंस गई। प्रिया दमयन्ती के मुख से ऐसे मधुर आ. ऐसे प्यारे वचन सुन कर नल, सुधा-समुद्र मे, शरीरान्तर्वर्तिनी मज्जा- पर्य त निमज्जित हो गया। स्तुति ऐसी चीज है जो शत्रु के भी मुंह से मीठी मालूम होती है। फिर प्राणोपम प्रिय के मुँह से उसके मिठास का कहना ही क्या है।

नल ने स्वयं दमयन्ती के आसन पर बैठना तो उचित न समझा। पर दमयन्ती की प्रार्थना पर उसकी सखी के आसन