महा अलौकिक है। इससे जान पड़ता है कि आप कोई दिव्यपुरुष, अर्थात् देवता, हैं। मन्मथ आप नहीं हो सकते, क्योंकि वह मूर्ति हीन है। अश्विनीकुमार भी आप नहीं हो सकते, क्योंकि वे कभी अद्वितीय नहीं देखे गए। यदि आप मनुष्य हैं तो यह पृथ्वी कृतार्थ है। यदि आप देवता हैं तो देवलोक की प्रशंसा नहीं हो सकती। यदि आपने अपने जन्म से नाग-वंश को अलंकृत किया है तो नीचे, अर्थात् पाताल में, होने पर वह सब लोकों के ऊपर समझा जाने योग्य है। इस भूमण्डल में किस मनुष्य ने इतना अधिक पुण्य सम्पादन किया है जिसे कृतकृत्य करने के उद्देश्य से आप अपने पैरों को चलने का कष्ट दे रहे हैं? इस प्रकार के न मालूम कितने सन्देह मेरे चित्त में उत्पन्न हो रहे हैं। अतएव आप अधिक देर तक मुझे सन्देह-सागर में न डुबोइये। बतला दीजिए कि किस धन्य के आप अतिथि हैं। आपके सुन्दर रूप का दर्शन करके मेरी दृष्टि ने तो अपने जन्म का फल पा लिया। यदि आप अपने मुख से अब कुछ कहने की कृपा करें तो मेरे कानों को भी सुधासार के आस्वादन का आनन्द मिल जाय।"
अपनी प्रियतमा के मुख से इस तरह शहद के समान मीठी वाणी सुनने से नल का अजीब हाल हुआ। दमयन्ती के ओष्ठबन्धूकरूपी धन्वा से, वाणी के बहाने निकली हुई मन्मथ की पञ्चबाणी (पाँच बाण) कानों की राह से नल के हृदय के भीतर धँस गई। प्रिया दमयन्ती के मुख से ऐसे मधुर और ऐसे प्यारे वचन सुन कर नल, सुधा-समुद्र में, शरीरान्तर्वर्त्तिनी मज्जापर्य्यन्त निमज्जित हो गया। स्तुति ऐसी चीज है जो शत्रु के भी मुँह से मीठी मालूम होती है। फिर प्राणोपम प्रिय के मुँह से उसके मिठास का कहना ही क्या है।
नल ने स्वयं दमयन्ती के आसन पर बैठना तो उचित न समझा। पर दमयन्ती की प्रार्थना पर उसकी सखी के आसन